कहाँ रहते हैं, क्या कहते हैं, दुबके दुबके से ये छुपे छपे से ये ... चुपके-चुपके बरबस अब कहाँ निकल चले हैं कभी आवारा से कभी बावरे से कभी खूब मौज में कभी किसी खोज में ये क्या सहते हैं, इसी बीच क्यों क्या यूँ ही बह चले हैं कभी इनका स्वाद जन्मदिन के लड्डू सा कभी ये होते प्रसाद निःश्छल पस्चाताप सा कड़वे, तीते, तो अक्सर कच्ची मौत के श्राद्ध सा नमकीन ,मीठा , सादा पानी सा एक बूँद डूबा देने को काफी है दूसरी ,कुछ भी धो डालने के लिये काफी कभी -कभी तो यह पीछे कुछ भी छोड़ दे - कहते कहते बहते चला जाता है आँसू, शैव्या के विलाप सा कभी दिखता भरत-मिलाप सा सुदामा के पग पखारता सा द्रौपदी- कृष्ण निहारता सा भारत विभाजन सा दंगों पर चीखती कविता सा या शहीद की शहादत सा आँसू मगरमच्छों के भी होते हैं नेत-टाइप आँसू- बहुतायत में सभी ने पहचान लिया है कथावाचकों के आँसू खूब बिकते है आँसुओ की तिजारत, बहुत खूब ये टी वी चैनल वाले करते हैं |
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