Wednesday, 15 August 2018

अपनी किशोरावस्था में मैंने पढ़ा , साहित्य समाज का दर्पण है.. मैंने अपने अनुभवों से , साहित्य को बहुत गहरा पाया.
सत्साहित्य से आग्रह, प्रेम, लगाव, आकर्षण को मैंने परम् शांतिकारक, परोपकारी और पुण्यदायी पाया।
यह अत्यंत तीब्र है जैसे उदर की जठराग्नि।
जिस प्रकार ब्यक्ति को नियमित  सुपाच्य सुभोजन चाहिए, वैसे ही मन मष्तिष्क को हर पल, विचार भोज चाहिए। ये पूर्णतः आप पर निर्भर करता है , विचार भोज में आप क्या परोस रहे हैं , अपने कोमल तंतुओं वाले दिमाग ,और हृदय को. मटर -पनीर या तंदूरी चिकन , दही -छाछ या फ्राई मेढ़क, घी -रबड़ी या आमलेट, गंगाजल या मधुशाला की विषैली हाला.. हम इतने योग्य या काबिल नहीं, हलाहल पी कर ,कंठ में ही रोक लें, और नीलकंठ बनकर जगत में भ्रमण करने लगें. हम तो नीलकंठ के चरणो की धूलि भी नहीं बन सकते. हम रावण जैसा कैलाश उठाकर तांडव गायन भी नहीं कर सकते.. हम तो कलियुगी संसारी जीव,यत्र-तत्र भटक रहे हैं, हम जैसों के लिए सत्साहित्य-- संजीवनी है. --शुक्राचार्य द्वारा अन्वेषित मृत्युंजयी मंत्र है . --बुधकौशिक का रामरक्षास्त्रोत है. --तुलसी का बजरंग बाण है. -- सूर की सारावली है. -- मीरा के पद है. सत्साहित्य नेत्र हीन के -प्रज्ञा चक्षु हैं , मूक-वधिर का -अंतर्नाद है, पंगु की- वैशाखी है, किसान -मजदूर का- मनोविनोद है, शोषित-पीड़ित का -आर्तनाद है. अबला की -शक्ति है . शक्तिवान की- विलियम शेक्सपिअर वाली "दया" है. अधिक क्या - सत्साहित्य में रूचि हो जाना, सत्साहित्य को पढ़ने की प्रवृत्ति हो जाना भी , माँ शारदा, परमगुरु की असीम अनुकम्पा है।

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