Saturday, 25 August 2018

जीवन की लम्बी यात्रा ने  बहुत कुछ दिया।  सच तो यह है की उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। मिठास या तीतापन ये शब्द तो लिखे जा सकते हैं।  इन शब्दों को पढ़ने के बाद अनुभवी लोग इन स्वादों की कल्पना भी कर पायेंगें पर मिठास या तीतेपन को लिख कर या कह कर  , सुन - सुना कर समझ या समझा कर  नहीं जाना जा सकता।
जीवन के अनुभव मैं यथा शक्ति , यथा रूप लिखने -कहने की कोशिश कर  रहा हूँ , पर खिन शब्द चूक जाते हैं कहीं मैं खुद  ही चूक जाता हूँ।
अपनी ग़लतियाँ , अपनी मजबूरियाँ , अपने भ्र्म , अपनी नादानियाँ , अपनी बेवकूफियाँ , अपनी ही दुष्टता , अपना ही पाप-पूण्य , अपना किया या न किया , अपना भुला या न भुला - यथारूप कहना -लिखना- बता पाना  इतना भी सहज नहीं होता।
कुछ अनुभव इतने कटु होते है कि उनका पुनः स्मरण जीवन में कडुवाहट को पुनर्जीवित क्र देते है। बुद्धि - विवेक -हृदय का एक अंश ऐसे प्रसंगों से पुनः दो चार होने के लिए तैयार ही नहीं होता।
क्या करूँ ,एक तरफ बुद्धि , दूसरी ओर विवेक  और अलग से द्रवित हृदय - इन सब में रचा  बसा   मेरा अनुभव जो जब भी होगा -आएगा-जायेगा इन्हीं मार्गों से ; और फिर खुद को आपादमस्तक आमूल चूल आप सब के सामने पूर्ण रूपेण खोल देने का मेरा संकल्प।
आप सोच सकते है स्वयम को निरावृत करना कितना कठिन है। 
कभी कभी सोचता हूँ दिगम्बर मुनि महाराजों के दीक्षा के क्षण कैसे होते होंगे।
आज यह सब लिखते समय सोचता हूँ की कृष्ण किस प्रकार अर्जुन के समक्ष दिब्य हुए होंगे।
ब्यक्ति जब आवरण से मुक्त होता है तभी वह दिब्य होता है। 
ईश्वर जीव को बिना आवरण के ही भेजता है और अंततः बिना आवरण के ही वापस ग्रहण करता है।

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