Saturday, 25 August 2018

मुझे सलीका ही नहीं , मैं क्षीर -नीर विवेक रखता ही नहीं -शायद मेरे में वह मेधा ही नहीं - इसी लिए मैं कहने योग्य अथवा न कहने योग्य का उचित निर्णय नहीं कर पाता .
शायद मैं वह कह जाता हूँ जो मुझे नहीं कहना चाहिये .
मैं वहाँ कह जाता हूँ जहाँ शायद नहीं कहना चाहिये .
मैं शायद वैसे कह जाता हूँ  जैसे मुझे नहीं कहना चाहिये .
मैं सब कुछ सभी जगह बिना एडिटिंग के सीधे लट्ठमार कहने का दोषी हूँ .
मैं छिपाना क्यों नहीं जानता ?
शायद चाहता ही नहीं ,इसलिये !
जरूरत ही नहीं , इसलिये .
मैं डरता नही या डरना जानता नहीं ,इसलिये ?
छिपाने को कुछ है ही नहीं ,डरने-डराने के लिये कुछ है ही नहीं .,छिपने -छिपाने के लिये कुछ है ही नहीं  बस इसीलिये शायद मैं कहीं भी ,कभी भी , कुछ भी  बोल जाता हूँ , कह जाता हूँ ,सुन-सुना जाता हूँ ,कैसे भी कहीं भी चला जाता हूँ , आ जाता हूँ . डर नहीं लगता . शर्मिंदगी नहीं होती .
 जानता हूँ बिना छिपाये आना-जाना,उठना -बैठना, चलना- चलाना, बोलना -चालना , कहना -सुनना सदैव हितकारी निरापद रहता है .
इसी तरह मैनें सीखा है . किया है . जीया है .
सीखा हुआ ,किया हुआ , जीया हुआ ही तो कहना होता है .इसमें जोड़ घटाव की जरुरत कहाँ ? किसलिये ?

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