अनेकता में एकता', 'फूल हैं अनेक किंतु माला फिर एक है', 'विविधता ही हमारी शक्ति है'...ऐसे नारे उन अक्लमंद लोगों ने गढ़े थे जो चाहते थे कि संतरा एक रहे, वे जानते थे कि भारत में सदियों से तरह-तरह के लोग बिना झगड़े साथ रहते आए हैं.
वे जानते थे कि ये एक मामूली संतरा नहीं है, इसकी सारी फाँकें अलग-अलग तो हैं ही, अलग-अलग आकार-प्रकार की भी हैं, उनके दुख-सुख और चाहत-नफ़रत एक नहीं हैं. कोई फाँक रस से भरी, कोई सूखी और कोई बहुत बड़ी, तो कोई बहुत छोटी है.
उनके सामने चुनौती थी आज़ाद भारत में तमाम विरोधाभासों के बावजूद एक नई शुरुआत करने की. उन्हें पता था कि इतिहास को पीछे जाकर ठीक नहीं किया जा सकता.
उनका इरादा देश को 'रिवर्स गियर' में चलाने का या इतिहास को बैकडेट से अपने जातीय-नस्ली-सांप्रदायिक स्वाभिमान के हिसाब से दोबारा लिखने का नहीं, बल्कि तरक्क़ी की इबारत लिखने का था.
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