वन, वनवासी - हमारी सभ्यता ,संस्कार और परिषद
नहीं जानता क्या सच क्या झूठ ।
पर जन्म के साथ ही राम के बनवास की कथा सुनते आया । पांडवों के अज्ञातवास का भी प्रकरण प्रकारांतर से वन प्रदेश से ही जुड़ा है ।
कई लोक कथाओं में संतो को जंगल में ध्यान करने की बात है । अनेक राजाओं के अंततः वन प्रस्थान का आख्यान है । हमारे यहाँ तो जीवन का अंतिम कल वन को प्रस्थान काल , वानप्रस्थ काल ही कहा गया है ।
हमारे इतिहास अथवा संस्कार अथवा संस्कृति में हमें कहीं भी वन प्रदेश या वन स्थित किसी भी साधन का ब्यक्तिगत अथवा सामाजिक अथवा राज्य के उपयोग की अनुमति नहीं थी ।
वन को अलग क्षेत्त ही माना जाता था । वन को हमने देव स्वरूप माना और जाना था । वे वन के देव थे । उनकी ज्ञात अथवा अज्ञात अनुमति के वनों में प्रवेश भी निषिद्ध था ।वनों के उपभोग की बात तो विचरपथ। में ही नहीं थी । वनों में जो भी निवास करते थे वे भी अपनी पूर्ण स्वतंत्रता का सम्पूर्ण उपभोग करते थे ।राजा अथवा ब्यापारी के लिये वन प्रदेश उपलब्ध ही नहीं थे ।बनवासी बन्धु भी परम् प्रिय प्रकृति के सानिध्य में थे।
ऐसी बात नहीं थी कि हमारे पूर्वजों को वनों में उपलब्ध अनन्त मूल्यवान वनस्पतीय या जैविक साधनों के बारे में जानकारी नहीं थी या उनके सम्भाब्य उपयोगों की जानकारी नहीं थी । घनघोर तप - अध्ययन तथा सूक्ष्म निरीक्षण- अवलोकन - मूल्यांकन से वन प्रदेश के तमाम रहस्यों तक हमारी सांस्कृतिक , सामाजिक , आर्थिक , बौद्धिक गम्भीर गवेषणात्मक पहुँच थी ।बस हमने अपने लोभ और अपनी ताकत को वन प्रदेशों में पहुंचने से रोक रखा था । वनों में प्रवेश , वन की वनस्पति सम्पदा का संग्रह , उनका शोधन आदि सब को हमने सामाजिक एवं सांस्कृतिक तरीके से सर्वजनहिताय नियमित कर और करवा रखा था ।
वन और वनवासी हमारे लिए देव थे ।वनवासी का राज्य में आगमन जब कभी होता था तो वह उत्सव होता था । वह वासियों को उनकी परम्पराओं के साथ ही समाज के मुख्य अवसरों पर सबन्धु- बान्धव आमंत्रित किया जाता था ।
राम कथा में तो वनवासी का देवत्व , मान ,सम्मान , स्वागत ,विदाई तथा पशु , पक्षी , भौरों , वृक्ष आदि के सहज वर्णन से वन तथा वनवासी, अरण्य साधनों के प्रति निष्ठा सब का दर्शन हो ही जाता है ।
वन या वनवासी हमारे अपने रहते हुए भी हमारे लिये देवतुल्य थे । हमारे संस्कार और सांस्कृतिक मूल्य कभी भी उनकी सम्पूर्ण पवित्रता ,शांति और उनकी अपनी तरह की सम्पन्नता , परम्परा में छेड़छाड़ करने अथवा उनका राज्य या इतर समाज के लिये उपयोग की अनुमति नहीं देता था ।हमने हजारो साल के सभी समाज की यात्रा के बाद भी अपने वनों को सदा सर्वदा कौमार्य सुरक्षा दी , उनका शील भंग होने देने के बारे में , दोहन के बारे में सोचा तक नहीं । वनों को तथा वनवासियों का कल्याण हमारी सांस्कृतिक तथा सामाजिक विरासत है ।
पानी , पेड़ ,पहाड़ ,वन हमारी सम्पत्ति नहीं , साधन नहीं - साध्य है , अमानत हैं और हम सब मात्र इनके ट्रस्टी है ।वनवासी हमारे देव तुल्य बन्धु है पर वन एवम प्रकृति के करीब होने के कारण देवत्व उनका सुरक्षित है । वह प्रान्त का जीवन शांत तारतम्य पूर्ण लयबद्ध है । आधुनिक समाज की आपाधापी वहाँ नही है । छल प्रपंच नहीं है । कितनों को तो आज भी कपट और झूठ ,धोखा की समझ - पहचान तक नहीं है ।
हम सब हर नयी प्राकृतिक सुबह के पहरुए है। हँसते निर्मल वन एवं वनवासियों के खिदमतगार है ।
वन के भी अपने संस्कार होते है ।वह खामखाह सुरक्षा खोजते ओढ़ते नहीं चलते । जंगलों को किसी माली ने नहीं बनाया, न सजाया , न जगाया । जंगल तो खुद से लड़ झगड़ कर पैदा हुए है । अपने बल बुते बढ़ते है । जंगल का अपना परिवेश होता है । जंगल को किसी ने सावधानी से खाद ,बीज पानी भी नहीं दिया । और हाँ , जंगल कभी भी जल्दी बाजी में नहीं रहता , न अधीर ,न बैचैन । न उगने की जल्दी , न बढ़ने की , न फूलने की , न फलने की ।जंगल कभी कुछ मांगता नहीं खोजता नहीं पर आश्रय सब को देता है । वनों में सारे प्राणी प्राकृतिक समभाव से हिलमिल कर रहते हैं ।
इसी संस्कार से वन में वनवासी रहते है । पवित्र ,सहज ,समन्वय, सामंजस्य, सरल औऱ किसी भी प्रकार के झूठ से दूर ।शायद उन्हें झूठ बोलना ही नहीं आता । बड़े सन्तुष्ट स्वभाव के । प्रकृति को ही अपना सब कुछ समझने वाले ।यही है बनवासियों की पहचान ।
सदियों से भारत के वन और वनवासी इसी प्रकार शान्त निर्मल निरन्तर उगते चलते रहते, वहते ,सहते आये हैं।।
किंतु इस निर्मल भारत के निर्मल वन और वनवासी को 17वीं सदी में नजर लग गयी । अंग्रेज जब ब्यापार करने आये तो उन्होंने भारत में हजारों साल से सुरक्षित वन और वन प्रान्तों को स्मृद्ध पाया ।उन्हें वनों में अकूत साधन दिखे । अनंत विविधता वाला वनस्पतीय जीवन दिखा । अत्यंत विविधता वाला वन्य जीव श्रृंखला दिखी और उन्हें सबसे ताज्जुब हुआ उसी वनों के साथ तादात्म्य बैठाकर पुष्पित पल्लवित हो रहे हमारे वनवासी बन्धु और उनकी सभ्यता , संस्कार ।उन्हें हमारे वनवासी बन्धुओं की सरलता , सहजता विचलित कर गई । वे इसे समझ ही नहीं पाये ।उन्होंने अपनी समझ से जब वन बन्धुओं को समझा तो उनके वन्य ज्ञान एवं समझ को देख , सुन , समझ कर चमत्कृत रह गए । हमारा विविधता पूर्ण सुरक्षित वन उन्हें अतुल्य सम्पदा का स्रोत दिखने लगा और हमारा हजारों साल का वन्य जीवन के साथ सामंजस्य ,समन्वय और संरक्षण उन्हें ज्ञान और विज्ञानं के नए आयाम दे गया । वस्तुतः यहाँ जो कुछ हमारे पास था वह अनन्त काल से देखा , परखा, समझा हुआ था ।वह सब हमारा अपना था और हमारे तन , मन चिंतन का स्वाभाविक हिस्सा बन चूका था । वह जीवन की हमारी प्राकृतिक प्रणाली बन गयी थी , बिना किसी प्रयास के नित्य कर्म में सदैव गतिमान । पर विदेशी लोगों के लिये ,खासकर पश्चिमी ठंडे प्रदेशों से आये लोगों के लिये यह प्राचीन तारतम्य , प्राचीन विविधता , वैचारिक बहुलता और उन सबके बीच परस्परता अनबुझ थी ।वे हतप्रभ रह गये ।
बस उनके इसी आश्चर्य मिश्रित मूल्यांकन से हमारे पुरातन वन्य जीवन और साधनों पर उनकी कुटिल निगाहें गड़ सी गयी । उन्होंने हमारे वनों का उपभोग करने की ठान ली और हमारे वन्य ज्ञान का अपने ब्यवसायिक प्रयोग का निश्चय कर लिया । उन्होंने हमारे वनवासी बन्धुओं की निर्मलता का लाभ उठाना शुरू किया ।विदेशियों ने योजना बना कर हमारे वनवासी बन्धुओं के पम्परागत वनों के साथ सम्बन्ध , अधिकार और समन्वय को भ्रष्ट करना शुरू किया ।बनवासी बन्धुओं का शारीरिक , दैहिक तथा आर्थिक शोषण करना शुरू किया ।
विदेशी संस्कार ,सोच एवं स्वार्थ के वसीभूत उन्होंने वनों के प्रति हमारी निष्ठां पर प्रश्न चिन्ह लगाना शुरू किया । जहाँ वन हमारे लिये निष्ठा ,आस्था ,अस्तित्व के प्रश्न थे वहीं उनके लिए कौतूहल और आर्थिक साधन मात्र थे । हमारे वनवासी हमारे अतिथि होते थे , उनके लिए वे सम्भावित मानव साधन । वनवासी का पारंपरिक ज्ञान हमारे लिए वनवासियों की अपनी धरोहर होते थे तो उनके लिये ब्यवसायिक उपयोग की संभावित तकनीक ।
पिछले दो तीन सौ साल में विदेशियों ने भारत के अक्षत अनंत वनप्रदेश में अकारण प्रवेश किया तथा वनप्रदेश की स्थानीयता ,गोपनीयता , पवित्रता , निजता को भंग किया ।फलस्वरूप वनवासी अशांत , असुरक्षित हुए और विचलित भी ।
यत्न पूर्वक हमारे बनवासी भाईयों को दिग्भ्रमित किया गया तथा बनवासी और गैर बनवासी के बीच नई नई खाईयाँ पैदा की और करवाई गई । बनवासियों को अकारण हीनबोध करवाया गया । वन- उत्पाद का वाणिज्यिक उपयोग के लिये व्यापक दोहन शुरू हुआ । अकूत वन्य प्राणी की विविधतापूर्ण उपस्थिति का भी अध्ययन ,प्रबन्धन आदि के नाम पर विलासिता ,मनोरंजन तथा ब्यापरिक उपयोग किया जाने लगा।
उन्होंने बनों में आदिकाल से रहने वाले लोगों की जीवनशैली को , जीवन चर्या , जीवन मूल्य , जीवन पद्धति को प्रभावित करने की महती योजना बनाई जिससे उनके अनंत अनुभवसिद्ध ज्ञान तक उनकी पहुंच हो और वे उसका ब्यवसायिक प्रयोग कर सके। इसीके समानांतर वनों पर अपना आधिपत्य भी जमाना उनका लक्ष्य था जिससे वे वनों का पदार्थ शोषण कर सकें। वनवासी समाज के मूल्यों पर वे अपने मूल्य ,पद्धति थोपने लगे और वनवासियों को तरह तरह से प्रलोभन दे , भय दिखा या डरा ,धमका या दबा कर उनके मूल स्वरूप धारा से पथच्युत करने लगे । यह सब एक लंबी षड्यंत्र योजना का ही हिस्सा था ।निरीह वन वासियों की संस्कृति से खेल होने लगा ।निरीह वन्य जीवों का शिकार होने लगा । वनों को वन उत्पाद के लिये खोज जाने लगा , खोदा जाने लगा ।
बनवासी बन्धुओं के दिल दिमाग अनुभव तक का प्रयोग ,उपयोग होने लगा । विदेशी विश्वास और शिक्षा पद्धति को हथियार बनाया गया और मुखौटा ओढ़ा गया सेवा का ,चिकित्सा का , शिक्षा के प्रचार प्रसार का ।वास्तविक उद्देश्य था अपने उपयोग के लिये भारतीय प्राचीन वन ब्यवस्था का दोहन, वन वासी का चाल चरित्र शील हरण।
नहीं जानता क्या सच क्या झूठ ।
पर जन्म के साथ ही राम के बनवास की कथा सुनते आया । पांडवों के अज्ञातवास का भी प्रकरण प्रकारांतर से वन प्रदेश से ही जुड़ा है ।
कई लोक कथाओं में संतो को जंगल में ध्यान करने की बात है । अनेक राजाओं के अंततः वन प्रस्थान का आख्यान है । हमारे यहाँ तो जीवन का अंतिम कल वन को प्रस्थान काल , वानप्रस्थ काल ही कहा गया है ।
हमारे इतिहास अथवा संस्कार अथवा संस्कृति में हमें कहीं भी वन प्रदेश या वन स्थित किसी भी साधन का ब्यक्तिगत अथवा सामाजिक अथवा राज्य के उपयोग की अनुमति नहीं थी ।
वन को अलग क्षेत्त ही माना जाता था । वन को हमने देव स्वरूप माना और जाना था । वे वन के देव थे । उनकी ज्ञात अथवा अज्ञात अनुमति के वनों में प्रवेश भी निषिद्ध था ।वनों के उपभोग की बात तो विचरपथ। में ही नहीं थी । वनों में जो भी निवास करते थे वे भी अपनी पूर्ण स्वतंत्रता का सम्पूर्ण उपभोग करते थे ।राजा अथवा ब्यापारी के लिये वन प्रदेश उपलब्ध ही नहीं थे ।बनवासी बन्धु भी परम् प्रिय प्रकृति के सानिध्य में थे।
ऐसी बात नहीं थी कि हमारे पूर्वजों को वनों में उपलब्ध अनन्त मूल्यवान वनस्पतीय या जैविक साधनों के बारे में जानकारी नहीं थी या उनके सम्भाब्य उपयोगों की जानकारी नहीं थी । घनघोर तप - अध्ययन तथा सूक्ष्म निरीक्षण- अवलोकन - मूल्यांकन से वन प्रदेश के तमाम रहस्यों तक हमारी सांस्कृतिक , सामाजिक , आर्थिक , बौद्धिक गम्भीर गवेषणात्मक पहुँच थी ।बस हमने अपने लोभ और अपनी ताकत को वन प्रदेशों में पहुंचने से रोक रखा था । वनों में प्रवेश , वन की वनस्पति सम्पदा का संग्रह , उनका शोधन आदि सब को हमने सामाजिक एवं सांस्कृतिक तरीके से सर्वजनहिताय नियमित कर और करवा रखा था ।
वन और वनवासी हमारे लिए देव थे ।वनवासी का राज्य में आगमन जब कभी होता था तो वह उत्सव होता था । वह वासियों को उनकी परम्पराओं के साथ ही समाज के मुख्य अवसरों पर सबन्धु- बान्धव आमंत्रित किया जाता था ।
राम कथा में तो वनवासी का देवत्व , मान ,सम्मान , स्वागत ,विदाई तथा पशु , पक्षी , भौरों , वृक्ष आदि के सहज वर्णन से वन तथा वनवासी, अरण्य साधनों के प्रति निष्ठा सब का दर्शन हो ही जाता है ।
वन या वनवासी हमारे अपने रहते हुए भी हमारे लिये देवतुल्य थे । हमारे संस्कार और सांस्कृतिक मूल्य कभी भी उनकी सम्पूर्ण पवित्रता ,शांति और उनकी अपनी तरह की सम्पन्नता , परम्परा में छेड़छाड़ करने अथवा उनका राज्य या इतर समाज के लिये उपयोग की अनुमति नहीं देता था ।हमने हजारो साल के सभी समाज की यात्रा के बाद भी अपने वनों को सदा सर्वदा कौमार्य सुरक्षा दी , उनका शील भंग होने देने के बारे में , दोहन के बारे में सोचा तक नहीं । वनों को तथा वनवासियों का कल्याण हमारी सांस्कृतिक तथा सामाजिक विरासत है ।
पानी , पेड़ ,पहाड़ ,वन हमारी सम्पत्ति नहीं , साधन नहीं - साध्य है , अमानत हैं और हम सब मात्र इनके ट्रस्टी है ।वनवासी हमारे देव तुल्य बन्धु है पर वन एवम प्रकृति के करीब होने के कारण देवत्व उनका सुरक्षित है । वह प्रान्त का जीवन शांत तारतम्य पूर्ण लयबद्ध है । आधुनिक समाज की आपाधापी वहाँ नही है । छल प्रपंच नहीं है । कितनों को तो आज भी कपट और झूठ ,धोखा की समझ - पहचान तक नहीं है ।
हम सब हर नयी प्राकृतिक सुबह के पहरुए है। हँसते निर्मल वन एवं वनवासियों के खिदमतगार है ।
वन के भी अपने संस्कार होते है ।वह खामखाह सुरक्षा खोजते ओढ़ते नहीं चलते । जंगलों को किसी माली ने नहीं बनाया, न सजाया , न जगाया । जंगल तो खुद से लड़ झगड़ कर पैदा हुए है । अपने बल बुते बढ़ते है । जंगल का अपना परिवेश होता है । जंगल को किसी ने सावधानी से खाद ,बीज पानी भी नहीं दिया । और हाँ , जंगल कभी भी जल्दी बाजी में नहीं रहता , न अधीर ,न बैचैन । न उगने की जल्दी , न बढ़ने की , न फूलने की , न फलने की ।जंगल कभी कुछ मांगता नहीं खोजता नहीं पर आश्रय सब को देता है । वनों में सारे प्राणी प्राकृतिक समभाव से हिलमिल कर रहते हैं ।
इसी संस्कार से वन में वनवासी रहते है । पवित्र ,सहज ,समन्वय, सामंजस्य, सरल औऱ किसी भी प्रकार के झूठ से दूर ।शायद उन्हें झूठ बोलना ही नहीं आता । बड़े सन्तुष्ट स्वभाव के । प्रकृति को ही अपना सब कुछ समझने वाले ।यही है बनवासियों की पहचान ।
सदियों से भारत के वन और वनवासी इसी प्रकार शान्त निर्मल निरन्तर उगते चलते रहते, वहते ,सहते आये हैं।।
किंतु इस निर्मल भारत के निर्मल वन और वनवासी को 17वीं सदी में नजर लग गयी । अंग्रेज जब ब्यापार करने आये तो उन्होंने भारत में हजारों साल से सुरक्षित वन और वन प्रान्तों को स्मृद्ध पाया ।उन्हें वनों में अकूत साधन दिखे । अनंत विविधता वाला वनस्पतीय जीवन दिखा । अत्यंत विविधता वाला वन्य जीव श्रृंखला दिखी और उन्हें सबसे ताज्जुब हुआ उसी वनों के साथ तादात्म्य बैठाकर पुष्पित पल्लवित हो रहे हमारे वनवासी बन्धु और उनकी सभ्यता , संस्कार ।उन्हें हमारे वनवासी बन्धुओं की सरलता , सहजता विचलित कर गई । वे इसे समझ ही नहीं पाये ।उन्होंने अपनी समझ से जब वन बन्धुओं को समझा तो उनके वन्य ज्ञान एवं समझ को देख , सुन , समझ कर चमत्कृत रह गए । हमारा विविधता पूर्ण सुरक्षित वन उन्हें अतुल्य सम्पदा का स्रोत दिखने लगा और हमारा हजारों साल का वन्य जीवन के साथ सामंजस्य ,समन्वय और संरक्षण उन्हें ज्ञान और विज्ञानं के नए आयाम दे गया । वस्तुतः यहाँ जो कुछ हमारे पास था वह अनन्त काल से देखा , परखा, समझा हुआ था ।वह सब हमारा अपना था और हमारे तन , मन चिंतन का स्वाभाविक हिस्सा बन चूका था । वह जीवन की हमारी प्राकृतिक प्रणाली बन गयी थी , बिना किसी प्रयास के नित्य कर्म में सदैव गतिमान । पर विदेशी लोगों के लिये ,खासकर पश्चिमी ठंडे प्रदेशों से आये लोगों के लिये यह प्राचीन तारतम्य , प्राचीन विविधता , वैचारिक बहुलता और उन सबके बीच परस्परता अनबुझ थी ।वे हतप्रभ रह गये ।
बस उनके इसी आश्चर्य मिश्रित मूल्यांकन से हमारे पुरातन वन्य जीवन और साधनों पर उनकी कुटिल निगाहें गड़ सी गयी । उन्होंने हमारे वनों का उपभोग करने की ठान ली और हमारे वन्य ज्ञान का अपने ब्यवसायिक प्रयोग का निश्चय कर लिया । उन्होंने हमारे वनवासी बन्धुओं की निर्मलता का लाभ उठाना शुरू किया ।विदेशियों ने योजना बना कर हमारे वनवासी बन्धुओं के पम्परागत वनों के साथ सम्बन्ध , अधिकार और समन्वय को भ्रष्ट करना शुरू किया ।बनवासी बन्धुओं का शारीरिक , दैहिक तथा आर्थिक शोषण करना शुरू किया ।
विदेशी संस्कार ,सोच एवं स्वार्थ के वसीभूत उन्होंने वनों के प्रति हमारी निष्ठां पर प्रश्न चिन्ह लगाना शुरू किया । जहाँ वन हमारे लिये निष्ठा ,आस्था ,अस्तित्व के प्रश्न थे वहीं उनके लिए कौतूहल और आर्थिक साधन मात्र थे । हमारे वनवासी हमारे अतिथि होते थे , उनके लिए वे सम्भावित मानव साधन । वनवासी का पारंपरिक ज्ञान हमारे लिए वनवासियों की अपनी धरोहर होते थे तो उनके लिये ब्यवसायिक उपयोग की संभावित तकनीक ।
पिछले दो तीन सौ साल में विदेशियों ने भारत के अक्षत अनंत वनप्रदेश में अकारण प्रवेश किया तथा वनप्रदेश की स्थानीयता ,गोपनीयता , पवित्रता , निजता को भंग किया ।फलस्वरूप वनवासी अशांत , असुरक्षित हुए और विचलित भी ।
यत्न पूर्वक हमारे बनवासी भाईयों को दिग्भ्रमित किया गया तथा बनवासी और गैर बनवासी के बीच नई नई खाईयाँ पैदा की और करवाई गई । बनवासियों को अकारण हीनबोध करवाया गया । वन- उत्पाद का वाणिज्यिक उपयोग के लिये व्यापक दोहन शुरू हुआ । अकूत वन्य प्राणी की विविधतापूर्ण उपस्थिति का भी अध्ययन ,प्रबन्धन आदि के नाम पर विलासिता ,मनोरंजन तथा ब्यापरिक उपयोग किया जाने लगा।
उन्होंने बनों में आदिकाल से रहने वाले लोगों की जीवनशैली को , जीवन चर्या , जीवन मूल्य , जीवन पद्धति को प्रभावित करने की महती योजना बनाई जिससे उनके अनंत अनुभवसिद्ध ज्ञान तक उनकी पहुंच हो और वे उसका ब्यवसायिक प्रयोग कर सके। इसीके समानांतर वनों पर अपना आधिपत्य भी जमाना उनका लक्ष्य था जिससे वे वनों का पदार्थ शोषण कर सकें। वनवासी समाज के मूल्यों पर वे अपने मूल्य ,पद्धति थोपने लगे और वनवासियों को तरह तरह से प्रलोभन दे , भय दिखा या डरा ,धमका या दबा कर उनके मूल स्वरूप धारा से पथच्युत करने लगे । यह सब एक लंबी षड्यंत्र योजना का ही हिस्सा था ।निरीह वन वासियों की संस्कृति से खेल होने लगा ।निरीह वन्य जीवों का शिकार होने लगा । वनों को वन उत्पाद के लिये खोज जाने लगा , खोदा जाने लगा ।
बनवासी बन्धुओं के दिल दिमाग अनुभव तक का प्रयोग ,उपयोग होने लगा । विदेशी विश्वास और शिक्षा पद्धति को हथियार बनाया गया और मुखौटा ओढ़ा गया सेवा का ,चिकित्सा का , शिक्षा के प्रचार प्रसार का ।वास्तविक उद्देश्य था अपने उपयोग के लिये भारतीय प्राचीन वन ब्यवस्था का दोहन, वन वासी का चाल चरित्र शील हरण।