Saturday, 4 October 2014



भारतीय सविधान निर्माता अद्वितीय सामाजिक ,राष्ट्रिय ,राजनैतिक दृष्टिकोण रखते थे .
उन्होंने विधायिका ,कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के लिये अलग अलग अलग व्यवस्था की .
चुनाव ,हिसाब -किताब ,सुरक्षा के लिए भी अलग ब्यवस्था की .
संविधान के प्रावधानों को देखें .
सबसे आश्चर्यजनक ब्यवस्था है - प्रत्येक पदधारियों को दिलाये जानी वाली पद और गोपनीयता की शपथ का प्रावधान . 
प्रत्येक शपथ की शब्दावली अन्तर है .
प्रत्येक शपथ का संविधान में स्थान भी अलग है .
केवल राष्ट्रपति (अ -६०),उपराष्ट्रपति (अ -६९ )तथा राज्यपाल (अ-१५९ )की शपथ प्रारूप संविधान के एक स्वतंत्र अनुच्छेद के रूप में मूल संविधान का हिस्सा है .
बाकी सारे शपथ प्रारूप संविधान के अंत में एक तालिका (शेड्यूल ३ ) के रूप में जोड़े हुए हैं . यह अन्तर अकारण नहीं हो सकता , न है .
जनहित के नामपर शपथ उठाने वाले केवल राष्ट्रपति एवं राज्यपाल होते है .
अन्य किसी के शपथ प्रारूप में जनहित शब्द है ही नहीं
यह अकारण नहीं हो सकता .एक पद के साथ निर्धारित शपथ उस पद की मूलभावना ,सीमा को परिभाषित करती है .
जिस प्रकार संविधान की प्रस्तावना जनता द्वारा ली गई शपथ है और संविधान की मूल विशेषता स्पष्ट करते है उसी प्रकार शेष सभी संविधान के शपथ प्रारूप उस पद की बेसिक फीचर डीफाइन करते हैं.
इस प्रकार स्पष्ट है की भारतीय संविधान में राज्य के अनंतिम दायित्व 'जनहित ' में कुछ भी करने का अधिकार केवल राष्ट्रपति को है , अथवा राज्यपाल को .
अब जनहित क्या होगा क्या इसे निर्धारित करने का अधिकार किसी को भी हो सकता है .
जो भी यह अधिकार अपने उपर लेते हैं वे संविधान की इस मूर्धन्य व्यवस्था का अतिक्रमण करते हैं, फिर चाहे वह मैं ही क्यों न हौऊ .
जनहित के नाम पर अपने क्षेत्राधिकार को निरंतर बढ़ाने वाली संस्था क्या दूसरी संवैधानिक संस्थाओं के क्षेत्राधिकार में अनावश्यक लगातार हस्तक्षेप से बाज आये गी , दूसरी संस्थाओं पर भरोसा नहीं करना , अपने आप को सर्वश्रेष्ठ समझना , दूसरों को इतर समझना बंद करेगी
अपने आप को सर्व शक्तिमान ,सबसे बुद्धिमान समझना बंद करेगी ..राज्य के द्दुसरे अंगों पर भरोसा करना ही चाहिये .
भारतीय संविधान निर्माताओं ने जनहित को राज्य के एक अलग अंग के रूप में अलग से विकसित कर शक्ति के विकेन्द्रियकरण को नये राजनैतिक रूप में परिभाषित किया था .

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