सबसे कठिन काम है नये का स्वागत करना, नये को स्वीकार करना ।
नये को स्वीकारने के साथ ही एक और काम हम-आप-सब को करना पड़ता है-- यह स्वीकारना पड़ता है कि था कुछ जो पुराना पड़ चूका है, उसे या यदि मैं स्वयं ही पुराना पड़ चुका हूँ तो मुझे नये के लिये जाने ही पड़गा।
यह स्वीकार करना , नये को स्वीकारने से अधिक कठिन है।
अपने कथित अनुभव, पुरानेपन, (यह बासीपन भी है), त्याग (य़ह आत्म-श्लाघा ही है) का कब तक ढ़िढ़ौंरा पीटते रहोगे।
पुराना तो जायेगा ही, गाजे बाजे के साथ जाये या धकिया दिया जाये।
मैं भी जाउँगा, क्या आप आमर होकर सदा रहेंगें क्या।
नये को स्वीकारने के साथ ही एक और काम हम-आप-सब को करना पड़ता है-- यह स्वीकारना पड़ता है कि था कुछ जो पुराना पड़ चूका है, उसे या यदि मैं स्वयं ही पुराना पड़ चुका हूँ तो मुझे नये के लिये जाने ही पड़गा।
यह स्वीकार करना , नये को स्वीकारने से अधिक कठिन है।
अपने कथित अनुभव, पुरानेपन, (यह बासीपन भी है), त्याग (य़ह आत्म-श्लाघा ही है) का कब तक ढ़िढ़ौंरा पीटते रहोगे।
पुराना तो जायेगा ही, गाजे बाजे के साथ जाये या धकिया दिया जाये।
मैं भी जाउँगा, क्या आप आमर होकर सदा रहेंगें क्या।
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