Wednesday, 8 May 2013

पाप से अर्जित धन

हे धर्मात्मन्, तुमने अत्यन्त संयम से काम, क्रोध ,लोभ पर नियन्त्रण रखते हुए धर्म अर्जित किया है पर यह तुम्हे संतोष (अहंकार) तो देता ही न है,मेरे अनुरोध पर भी तुम अपना धर्म त्याग करने के लिये तैयार नहीं हो, अच्छी बात है।
इसै तरह मैंने भी अत्यन्त साहस से तुम्हारी समस्त उपेक्षा के बावजूद मर्यादा तक की परवाह नहीं किये बिना धन अर्जित और संग्रह किया है, यह मुझे संतोष (अहंकार) तो देता ही न है,तुम्हारे अनुरोध पर भी मैं अपना धन त्याग करने के लिये तैयार नहीं हो सकता, मुझे बार बार दान,चन्दा त्याग के लिये उकसाना कहीं तुम्हारे अन्दर छिपे प्रचन्ड लोभ का द्योतक तो नहीं ।

कहीं तुम मुझे धर्म का खरीददार तो नहीं समझ बैठे, लगता तो है तुम धर्म की दुकान खोल बैठै हो।

तुमसे तो मै भला जो खुले आम दुकान करता हूँ, तुम्हारी तरह छिप कर नहीं।

राजन्, आप सुन रहे हैं न। क्यों सब कुछ बेच डालने पर उतारू हैं। सारे राजा, सारे धर्मात्मा की नजर मेरे पाप से अर्जित धन पर क्यों हैं---

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