Friday, 31 May 2013

इमान तो बेचा ही है हमने,बचपन भी हम बेचेंगें
खेल ,खिलौने बेच ही डाले,अपने को भी बेचेंगें।

भोपाल से तो आँसू बेचे,द्रास से बेचे ताबूत थे
बेचा है हवा औ माटी, इन्सान नहीं हम भूत थे।

राम रहीम सब कुछ बेचा,बेचा है विश्वास को
अबकी बार बेच ही देंगें ,बची हुई इस आश को।

बेच दिया है सब कुछ हमने, बचा हुआ भी बेचेंगें
जब कुछ भी न बचेगा तब, अपने को ही बेचेंगें।

Thursday, 30 May 2013

कुछ तो होगा जिसे छिपाना नहीं चाहिये, जिससे छिपना नहीं चाहिये,
अपना मुँह खुद ही देख लो, दाग न छिपाओ,उनसे छिपना नहीं चाहिये
आईना दूसरे दिखाये, वे सब बातें बनाये, इसीसे बचना , बचाना चाहिये
अपना आईना खुद ही बन जाओ,अपने ही आईने में खुद को देखना चाहिये।
पदार्थ पर चर्चा हमें अनायास उत्तेजित कर डालती है, पदार्थ -दर्शन मात्र से हम सक्रिय हो जाते है,
पर यदि हमे कभी विचार क्षेत्र में कभी कोई झाँकने को भी कह दे तो--------------
स्कूल- कालेज बंक करके, माँ की दवा के पैसे से या किताबों के लिये मिले पैसों से सिनेमा, थियेतर ,नौटंकी, क्रिकेट, फुटबाल हमें खुब भाति है, जरदा, तम्बाकू, शराब बनाना, बेचना, पीना, पिलाना सब अच्छा है, भारी भीड़ जुटती है-नाच गाने के लिये- पर विचार हमें भाते ही नहीं
हम भावनाओं से अधिक जुड़ाव महसूस करते हैं, भावनाओं के मामले मे काफी सचेत और भावुक हैं पर तर्क, विचार, सार्थकता की तलाश की ओर हमारे कदम ही नहीं उठते।
महत्व तो केवल समय देता है, वही कद्रदान है, वर्तमान से , लोगों से कद्र की उम्मीद करते हुए कोई काम किया ही नहीं जा सकता, लोग तो जहर का प्याला, सूली, सलीब। सितम, जलालत, जहालत, लानत ही देते हैं- पर उसकी परवाह किसको- हाँ थोड़ा साहस , धैर्य तथा किसी एक का हाथ में हाथ डाले साथ और किसी एक का सर पर हाथ तथा अपना माथ तो चाहिये ही न।
शाश्वत्, भुक्त भोगी हूँ, वह हटता ही नहीं, वह संभलने ही नहीं देता- संभाले रखता है, पर गहराइयाँ बढ़ती जा रही है, --अब तो ऊठने की तमन्ना भी नहीं रही, और गिरा लो- मैं तो संभलने से रहा---
If you are better then average betters, you must be certified genius otherwise be ready for kicks, boots and hooting. They never trust a man with really higher degree of performance, understanding or yield. They have only two ideas, "just like we" or "Angel (GOD OR DEVIL)".
They would simply preach not to be really very wise, laborious, honest, good, innovative, curious, learned, kind etc. They have an average acceptable level and they go only by that. This level is very subjective and revolves around their own level.
 Next time ,if you are born, plan like that.

Wednesday, 29 May 2013

If you are better then average betters, you must be certified genius otherwise be ready for kicks, boots and hooting. They never trust a man with really higher degree of performance, understanding or yield. They have only two ideas, just like we or Angel (GOD OR DEVIL).They would simply preach not to be really very wise, laborious,honest,good,innovative, curious, learned, kind.etc. They have an average acceptable level and they go only by that. This level is very subjective and revolves around their own level.
next time ,if you are born, plan like that.

Tuesday, 28 May 2013

मानव मन अनन्त संभावना की सतत् यात्रा पर रहता है, इन संभावनाओं का पूर्वाभाष, आकलन करने की क्षमता ही हमारी शिक्षा है। मानव मन की यही गति मानव के समस्त शारीरिक अथवा मानसिक क्रिया-कलापों की दिशा -दशा तथा तीब्रता निर्धारित करती है। मानव मन का अध्येता मानव शरीर के क्षेत्र मै काम करने वालों का स्वाभाविक नेतृत्व करने लगता है क्यों कि मानव मन की गति की संभआवनाओं के अद्ध्ययन से जो दूर दृष्टि प्राप्त होती है वह मानव शरीर के जानकरों के लिये संभव नहीं है।
प्रकृति का संपूर्ण वास्तुशिल्प अत्यन्त समनुपातिक एवं सहज है,
चूःकि हमारी बुद्धि, हमारा मन और शरीर तुलनात्मक रूप से उतना सहज नहीं रह सका ,
प्रकृति के कारण नहीं , अपने कारण,
क्यौंकि हम स्वयं को प्रकृति के संपूर्ण हवाले नही कर पाते हैं,
अतएव हम अपनी उर्जा प्रकृति को समझने में,
कभी कभी लड़ने में,
प्रकृति को ही अपने अनुरुप बनाने में
अथवा अपनी उचित अवस्था की खोज मैं लगाने लगते हैं।
प्रकृति के सहज हवाले नहीं कर पाने की हमारी कृत्रिम असहजता या असफलता को ही हमने सभ्यता, पुरूसार्थ समझने की जो भूल की है वह अक्षम्य है।

Sunday, 26 May 2013

Let us ask the fundamental questions: why do we give our son a foreign university degree or foreign tag education?
Do we assume they would teach him something that we could not or do we feel that we do not have enough to teach or give to our son?
Do we feel they would complement what we had to teach or supplement it? Do we find that currently what he has learned is almost a substitute to what we... know?
Isn't education supposed to teach him best practices, so where is the problem?
Can't we teach the best - best in all respect?
If not ,what; and why. Why we cannot teach that?
Have we identified what we are unable to teach?
Have we explored and questioned, why we are unable to teach?
Or we are simply a prey to market strategies.
Have we ever docketed our whole of ancient,contemporary or ongoing knowledge resources in an intelligent systematic way.
I try to make sure that I am not opposing my son only because he is different. If I impose my views on him, he will resist. He will see me as a threat and reject me. Or, he will only pretend to listen me, and end up doing whatever he wants to do.

I need to respect my son as another person with an education different from mine and may be better then mine.

I am not the only best.

The best is yet to come and I am there to welcome it in the form it appears or descends.
You have my advice, not only out of love, nor for charity,never beause
I am duty bound to tender my advice,
but
only because and only till a point you evaluate it willingly feeling that it may help you and you need it

Friday, 24 May 2013

दूसरा कौन है, सभी तो अपने हैं, प्रेम देने से प्रेम कहीं घटता है, न तुम्हारे हिस्से का प्रेम कहीं जायेगा, न बँटेगा। सभी को पूरा प्रेम ही मिलता है, टुकड़े प्रेम के होते ही नहीं, प्रेम सदैव संपूर्ण ही होता है, होता है तो है, नही तो नहीं, बीच मैं कुछ नहीं। प्रेम बाँटने वाले से इर्ष्या कैसी, उसे धमकाना कैसा, किसी को डरा कर न तो प्रेम- न हीं मान-सम्मान- कुछ भी नहीं पाया जा सकता। प्रेम का कोई समतुल्य है ही नहीं।
मुझे अपने मन की करने का हक तो है पर अनुचित करने का हक नहीं है, बहुत सारे उचित रास्तों में से एक उचित रास्ता ही चुन लेना चाहिये, जो मन को अच्छा लगे उस तर्क पर अनुचित, या मेरा मन मैं जो चाहूँ करूँ, तुम बोलने वाले कौन, उस आधार पर मनमौजी उनुचित, लोकरीति के विरुद्ध करने का हक मुझे तो नहीं है, तुम्हारी तो तुम जानो । मेरा आचरण मेरी जिम्मेवारी है।

Wednesday, 22 May 2013

बेटे, पड़ोसी ने बताया कि कल तुम गाँव आकर चले भी गये, क्या मेरे हाथ की रोटियाँ भी तुम्हे अपनी माँ के पास खींच कर नही ला सकी।
अगली बार जरूर आना। ठीक है मेरी हाथ की रोटी कभी कभी कुछ कच्ची रह जाती होगी,अगली बार ठीक से बनाऊँगी, यह भी एकदम नहीं पूछूंगी कि माँ के लिये क्या लाया है रे, किसी तरह से भी नहीं कुछ भी नही कहूँगी, किसी के बारे में भी नहीं, अपने बारे में तो हरगिज नहीं। बस एक बार आ जाना।
फिछली बार तुमने मुझसे मोबाइल पर बात बी नहीं की थी। शायद बहुत बीजी था। कोई बात नहीं, टैम निकाल कर अपनी आवाज सुना भर देना, सो जाऊँगी। बहुत दिनों से----------

प्रियवर,
मेरे बड़े मजे हैं,मैं बड़े इतमिनान से सोता हूँ, सो कर उसी इतमिनान के साथ उठता हूँ। दिन भर अपना काम-काज भी बड़े तसल्लीबख्श तरीके से कर पाता हूँ, लगभग कोई डर -भय नहीं सताता। न कोई चीज इधर-इधर रखने का भय, रख कर भूल जाने का डर, नौकर-चाकर, दाई, अतिथि, रिशतेदारों पर खामखाह हर वक्त नजर रखने के पचड़े से लगभग मुक्त, हर छोटे अन्तराल पर कोई अनजाना भय मुझे नहीं सता पाता, बार बार पूरे घर को खोजी निगाह... से ढ़ूढ़ डालने, खंगालने के आतंक से लगभग मुक्त।
मेरे माता पिता ने मेरा धन मेरे माथे मे रख डाला है, मैं भी आगे भी वही करता हूँ, खुल कर बाँटता हूँ फिर भी घटने का नाम नहीं, इसके लिये मुझे कोई खाता-बही नहीं रखनी पड़ती, कभी कोई ,बैंक रिकान्सिलियेशन स्टेटमेन्ट नहीं बनाना पड़ता, हेरा-फेरी, चोरी -वोरी, तेजी-मंदी, घट-बढ़- फिकर नाट।
परमात्मा, मेरी इस शान्ति को बनाए रखना। मैं नहीं भी चाहूँ तब भी।
फदार्थ का दर्शन, संग्रह यहा तक की विचार भी, सुख देता है या नहीं यह तो मैं नहीं बता सकता पर अशान्ति देता है, भ्रम देता है, नींद उड़ा ले जाता है, चैन खा जाता है।

Thursday, 16 May 2013

न जाने क्यूँ मुझे मेरे ही नाम से नफरत हो चली है,
बड़ा चुगलखोर है यह।

इसे छिपा कर जब जब मैं घुमा हूँ,
कई बार जब इसे छोड़ कहीं आता हूँ
... तब तुमने भी मझे शायद ईंसान समझा।

हो सकता है गलत समझ थी तुम्हारी।

फिर मेरी फितरत करनी देख,
शैतान या हैवान या अभी भी
इंसान समझना चाहा।

पर निगोड़ा नाम जैसे ही झाँका दरींचे से
तुम, वे और यहाँ तक की मैं भी
हिन्दू है, मुसलमान ही है समझ चुका था।

मेरे आसपास इंसानी साया तक नहीं रहा
नाम के आते ही वे जज्बात भी गुम थे।

मेरा नाम ,ऐ दुनियावालों वापस ले लो
बिना नाम के ही जी लूँगा

भले ही एक संख्या रहूँ
मजहब की कैद में
चिन्दी-चिन्दी फट कर या फिर
यूँ बँट कर तो नही रहूँगा।


रिश्ते पहचानना होता हे,
जानना होता है,
मानना होता हे,
मनाना होता है,
मनवाना होता है,
... चुनना और बिनना होता है,
सँवारना तथा फटकारना होता है,
और
सावधानी से रिश्तों के व्यापारियों से
रिश्तों को
वैसे ही बचाना होता है
जैसे
बचपन को बचपन के व्यापारियों से,
यौवन को यौवन के कोठेदारों से,
बाबा भारती के घोड़े को डाकू खड़ग सिंह से-
आखिर रिश्ते रिशते हीं तो हैं
कोई फरिशते तो नहीं
कि
सब कुछ बरदास्त कर ही जायेंगें-
रिश्ते पर प्राइस टैग लगा देख कर
सावधान तो हो ही जाना चाहिये।
Mankind have been walking continuously with an alert mind in order to improve his understanding, achievement ,knowledge since before the days of fire, wheel and art of multiplying seeds.

 Civilisations only grow never leap or gallop.
 
Civil life, knowledge and order did not come up in a day out of blue.

 We have kept our own thrust for newness alive in spite of all odds.
 
 Evergreenig of knowledge keeps minds moving.

 After certain growth only inching forward is possible that too with great effort, resource and sacrifice.

 A society that over looks these tiny improvements or fails to accord due recognition to such improvements or entrepreneurs responsible for or making possible these small but very significant advancement not only stops the growth of intelligence, knowledge and innovation but kills the incentive for innovation.

 Do not sacrifice centuries ahead for a day to-day.
 
Learn to bear, endure and sacrifice for the generations ahead.

 We all are responsible to-wards forthcoming generations, both in terms of worth and capacity, quantity and quality, sustained growth and growability, past, present and the way ahead future.

 Let us not sin against future. Do not block the generations to come, not in any way

Wednesday, 15 May 2013

सदियों से पसरे दोनों किनारे
अपलक निहारते, मिलते नहीं।
पीड़ा उनकी , कहीं जाती नहीं
देखी जाती नही, कही जाती नहींं।

नाचते फिरी लहरें बावरी सी 
आखिर हुई उदास एक दिन
वियोग ऐसा, ये देखा नहीं जाता
हमीं हैं कारण, मन भर आता।

बहना तुम्हारा है हमारे कारण
पुण्य-सलीला हो इसी कारण।
तुम्हारे ही कारण,जीवन हमारा
हमारावियोग ही जीवन तुम्हारा।

मिले जो हम तो ,संयोग न होगा
लहर न होगी,नद-प्रवाह न होगा,
सूखी जो नदी, तो किनारे कहाँ
न हम , न तुम, न जीवन होगा।

किनारे बनाने में सदियां लगी है
नदियों को बहने में सदिया लगी है,
न मिले किनारे, न यूँ बसे शहर
ये दुनिया बसाने में सदिया लगी है ।

मिल गये जो किनारे,कहर बरपेगा
सूखेगी नदियाँ,प्यासा शहर तड़पेगा
तरस खाकर न किनारे मिलाओ
यूँ शहर बसाने से अब बाज आओ।

Sunday, 12 May 2013

Tax-man's arsenal

Tax-man's new terminology -
  •  Plug revenue leakage, 
  • Detect custom duty and service tax evasion
  • The detection through the Directorate General of Central Excise Intelligence (DGCEI)
  • And trough Directorate General of Revenue Intelligence (DRI)
  •  The two leading financial intelligence agencies under the Revenue department of the Ministry
  • The Financial Intelligence Unit-India (FIU), an agency tasked with analysing and disseminating information relating to dubious exchanges,
  • Track Suspicious Transaction Reports (STRs) through DGCEI and  DRI
  • Direct tax evasion
  • Track dubious banking transactions,
  • Track  funds remitted through banking channels 
  • Transactions by various importers and exporters using bogus invoices should be extensively investigated, physically, on-line, electronically.
  • Act on the intelligence following suspicious Cash Transaction Reports (CTRs), 
  • Detected possible diversion of duty-free imported goods .
  • Engage revenue friendly legal minds
 

Friday, 10 May 2013

मै, कई बार अनायास उपेक्षा के शिकार हुआ हूँ, घोर अपमान की स्थिति से दो चार हुआ हूँ, इनमें से अधिकांश की मैने ने भी उपेक्षा कर डाली है, लगभग भूल सा गया हूँ,कूछ का विश्लेषण कर अपने ही खिलाफ निष्कर्ष निकाल मन को समझा लिया हैं,
पर अपनों से मिली उपेक्षा या अपमान या पीड़ा बार बार उमड़ती है, नई पीड़ा दे जाती है, उसे भूला नहीं मैं पाता, तब भी नहीं जब मै स्वय़ं को ही दोषी भी समझ रहा हूँ, अपनी उपेक्षा का कार...ण स्वयं को समझ चुकने के बाद भी मै अपनों से अपनापन और सद्-व्यवहार की ही अपेक्षा कर रहा हूँ- शायद मैंने ही अपनों की उपेक्षा की है, फिर भी मै अपनों से अपनेपन की अपेक्षा कर रहा हूँ- जब इतने मेरे प्रमाद के बाद भी आप सब मुझे अपनापन देते रहते है तब अपनों से मिली उपेक्षा या अपमान या पीड़ा बार बार उमड़ती है, नई पीड़ा दे जाती है क्यों कि मैं उसी के योग्य था-
मै समझ रहा हूँ अपनी ही पीड़ा का कारण
पर आज और अब-
आपकी उपेक्षा नहीं अपका निश्चल प्रेम, आपका दिया स्वाभाविक अपनापन मुझे पच नही रहा है
बस इतना सा ही तो है।

Wednesday, 8 May 2013

सूखा ,उतरा सा वह क्यों
अभी-अभी क्या बह गया है
पानी आँख का
या आँसू आँख से
या सिर के उपर से पानी,
कहीं पानी उतर तो नहीं गया है।

कहते क्यों नहीं,
अभी -अभी वह क्या कह गया है
चुप रहने के लिये
... या छिप जाने के लिये
या कुछ छिपा देने के लिये
कही सब कुछ उजागर तो नहीं हो गया है।

वह उदास क्यों था,
वह क्या सह गया है
उपहास या अपमान
सत्यानाश या सर्वनाश
य़ा कि बाकी कुछ ही रह गया है
कहीं कुछ खो तो नहीं गया है।

बताते क्यौ नहीं
पूछ तो रहा हूँ, अब क्या रह गया है
मलाल,अफसोस,पछतावा
या कि केवल याद
हो सकता है, हो कोइ स्वाद
मैं बताता हूँ, कुछ भी नही रहने आता है

कुछ भी नही रहता है
कुछ भी नही रह जाता है
कुछ भी नही रहने आता है
मैं बताता हूँ, कुछ भी नही रह पाता है।

पाप से अर्जित धन

हे धर्मात्मन्, तुमने अत्यन्त संयम से काम, क्रोध ,लोभ पर नियन्त्रण रखते हुए धर्म अर्जित किया है पर यह तुम्हे संतोष (अहंकार) तो देता ही न है,मेरे अनुरोध पर भी तुम अपना धर्म त्याग करने के लिये तैयार नहीं हो, अच्छी बात है।
इसै तरह मैंने भी अत्यन्त साहस से तुम्हारी समस्त उपेक्षा के बावजूद मर्यादा तक की परवाह नहीं किये बिना धन अर्जित और संग्रह किया है, यह मुझे संतोष (अहंकार) तो देता ही न है,तुम्हारे अनुरोध पर भी मैं अपना धन त्याग करने के लिये तैयार नहीं हो सकता, मुझे बार बार दान,चन्दा त्याग के लिये उकसाना कहीं तुम्हारे अन्दर छिपे प्रचन्ड लोभ का द्योतक तो नहीं ।

कहीं तुम मुझे धर्म का खरीददार तो नहीं समझ बैठे, लगता तो है तुम धर्म की दुकान खोल बैठै हो।

तुमसे तो मै भला जो खुले आम दुकान करता हूँ, तुम्हारी तरह छिप कर नहीं।

राजन्, आप सुन रहे हैं न। क्यों सब कुछ बेच डालने पर उतारू हैं। सारे राजा, सारे धर्मात्मा की नजर मेरे पाप से अर्जित धन पर क्यों हैं---

Tuesday, 7 May 2013

यूँ बँट कर तो नही रहूँगा।

न जाने क्यूँ मुझे मेरे ही नाम से नफरत हो चली है,
बड़ा चुगलखोर है यह।

इसे छिपा कर जब जब मैं घुमा हूँ,
कई बार जब इसे छोड़ कहीं आता हूँ
तब तुमने भी मझे शायद ईंसान समझा।

हो सकता है गलत समझ थी तुम्हारी।

फिर मेरी फितरत करनी देख,
शैतान या हैवान या अभी भी
इंसान समझना चाहा।

पर निगोड़ा नाम जैसे ही  झाँका दरींचे से
तुम, वे और यहाँ तक की मैं भी
हिन्दू है, मुसलमान ही है समझ चुका था।

मेरे आसपास इंसानी साया तक नहीं रहा
नाम के आते ही वे जज्बात भी गुम थे।

मेरा नाम ,ऐ दुनियावालों वापस ले लो
बिना नाम के ही जी लूँगा

भले ही एक संख्या रहूँ
मजहब की कैद में
चिन्दी-चिन्दी फट कर या फिर
यूँ बँट कर तो नही रहूँगा।

Friday, 3 May 2013

तुम्हारे हाथ में तो खंजर हैं, शिराओं में गरम खून, फौलादी पंजा भी है
मैंने तो नाखूनों, दांतों से थकते लोगों को शिकार करते, लड़ते देखा है।
धुन्ध, अन्धेरा, उमस और गहराती गरमी
अब मझे और बैचैन नहीं करती
मुझे पता चल गया है
कि अंकुराने के लिये यह सब जरुरी है
Samarth aur shaktishali bano ,ek kadam peechhe hato, sir ucha karo. charo aur ghumao, charo aur jitni door dekh sakte ho dekho, ruko, samajh kar apne shikar /lakshya ki aur jhapto.ho sakta hai thoda daurna pade, thake bina shikar ke thakne tak peechha karo- jivan aur adhyatma yahi raste batata hai
धर्मक्षेत्रे वा कुरूक्षेत्रे वा अन्यक्षेत्रे- विवादेन् अलम्
हाँ कहूँ तो है नहीँ, ना भी कहा न जाय
यह सब कूछ द्वन्द्व ही तो है
जिसके कारण वाक्पटु भ्रम फैला जाते है
सदा सच बोलो
पर
... अप्रिय सच मत बोलो
और हाँ, जान कर रखना
सच सदा अप्रिय होता है

महाभारत का कथानक सभी प्रकार से भ्रम फैलाता है
या कह सकते हैं- टैक्टफुल प्रेक्टिकल बनाता है
यदि आप निर्ल्लज्ज नैतिकता का स्वांग धारण कर सकते हो
कथित सफलता के लिये सर्वस्व
सभी मुल्यों सहित त्याग कर डालना
कितना सही है
प्यास और भूख से श्रेष्ठ शिक्षक विधाता ने आज तक नहीं बनाया, प्रकृति साक्षी है
दिये के बुलन्द हौसलों को देख आप भी हीम्मत तो बाँध ही सकते हैं, जीतना और हारना तो बाद की बात है, बिना लड़े क्या अन्धेरा आपका पिन्ड छोड़ देगा, जब नन्हे से दिये ने आजतक हार नहीं मानी तो आप फिर से खड़े हो कर उम्मीद बाँध आ जाइये, मैं आपके साथ हूँ, पहले भी था, आज भी हूँ, ईस्वर ने चाहा तो आगे भी इसी तरह आपके लिये दुआ माँगता मिलूगाँ----
“Perhaps I just wanted to encourage you, him and myself, get all that deserves to be won, this beautiful world will never be lost, never, never.

Pray and work to win and after you have won, share what ever you have won. You are never the first to win and shall never be the last to win.
You are only one of the winners chain.
No victory should be allowed to enter your head or heart nor you should allow the victory to win you..
The pain ,agony and a bad name in life can be translated into joy, opportunity and fame but I do not know how I will deal with these after my life Journey is over- I must contribute for the generations to come in terms of healthy and robust values and perhaps that will give me peace , rest and growing life after my journey is over
I could only feel these and share-
1) As an academician one has the liberty to be idealist, perfectionist, philosophical and experimentalist. Can use one's independent learning.

2) While performing Judicial duties , you have the liberty to be really impartial but a responsibility to be really well read and to avoid extremities .
Try to go by precedents with a liberty to inject one's wisdom.

3)... As an administrator , you can afford to be harsh, showy, and can carry risks. Be ready for the consequences.

4) Quasi Judicial responsibilities are different and one has to speculate on right,practical and probable standards with a legal and judicial touch
.
5) Management responsibilities - unpredictable, balancing between the boss, reality, practice, expectation of different stake holders- and have to co-ordinate, co-operate, compromise and spin a team - a lot of HR management, allocation of resources and responsibility to maintain time schedule and ultimately to deliver without complaining

6) Event Management- to be on toe till the event is over and wait for criticism

Wednesday, 1 May 2013

कहो तुम कैसे हो-
छले गये
बाली
राहु
केतु
एकलब्य
बर्बरीक
जैसे मत रहना
अमरत्व के लालच में।

... मर ही गया कर्ण
मेधनाद
कुम्भकर्ण
ये सब मार दिये गये थे
निरपराध
केवल
मित्रघात
वा कि
कुलघात
नही करने के कारण।

तो क्या हुआ
अभिमन्यु
किस अपराध के कारण मारा गया।

मरने के पहले
तुम्हे कोई छल ले
फिर चाहे वह विधाता ही क्यों नहीं हो
निश्चित मृत्यु जान कर भी
उससे पहले लड़ते हुए
मरने का निशचय कर
युद्ध मे खीँच लाना
उस छली को ।

छले जाने से
मिले अमरत्व से
यह रास्ता श्रेयष्कर है
अमरत्व नही भी मिले तो भी ।
तुम मेरे कुछ लगते क्यों नही
तुम मुझसे लगते क्यों नही
तुम मेरे क्यों लगने लगे हो
मैं तुमसे क्यों लगा जा रहा हूँ।

तुम मुझे जानते क्यों नहीं
तुम मुझे मानते क्यों नहीं
मैं अनजान, तुम्हें बिना जाने ही
इस तरह क्यों मानने लगा हूँ।

... बात बहुत दूर तलक जायेगी,
बिना लगे यूँ लगना या लग जाना
अंज़ाम तो कूछ आवेगा ही
अनजाने, बिना जाने यूँ मान जाना।

अनजाने रास्तों पर यूँ बेधड़क
इतनी दूर चला आया हूँ
एक रौशनी, झलक या एहसास
बिना किये इतमिनान, बस चला आया हूँ।

तूम हो कि जागते नहीं
भगाने पर भी भागते नहीं
मैं क्यों दिन रात जगने लगा हूँ
यह कौन, जिसके लिये भागने लगा हूँ।

जग कर लगने से
लग कर जानने से
जान कर पीछे भागने से
क्या तुम सचमुच मिल ही जाओगे।

तुम न भी मिले तो क्या
मैं लगना छोड़ दूँगा
मानना छोड़ दूङगा
जानना छोड़ दूँगा।

तुम हो या नहीं
यह सवाल कैसे आया
मेरे नहीं जगने का
भाग जाने का, सवाल केसे आया।

तुम हो,
तभी तो मैं हूँ
तुम रहोगे
मै रहुँ न रहुँ।

मेरा ईमान हो तुम
मेरा विश्वास हो
एहसास हो तुम
मैं ही तो हो तुम।