जब कभी अपनी पन्द्रह से पच्चीस की उम्र के हालातों को याद करता हूँ तो पुरे शरीर में सिहरन होने लगती है .
क्या अँधेरा था , घटाटोप।
अपमान की भयंकर आंधी चल रही थी .नींव सारी रोज ब रोज उखड़ती जा रही थी .निराशा का गहरा गड्ढा . इन सब के बीच मेरा अपना विद्रोही शरीर और मन।
मैं था की तमाम झंझावातों के बाद भी उफनता ही जाता था . आज समझ में आता है की मैं कितना गतिशील था- हो सकता है उसके लिये जिद्दी ,उदंड ,झक्की ,सनकी ,अपनी धुन का पक्का आदि शब्द अधिक उचित हो . मेरे अन्दर कहाँ से उर्जा आती थी पता नहीं .आज समझ में आता है की मैं सचमुच एक समस्या ही रहा होऊंगा . विकट बालक , बात बात में अड़ जाना , बहस पर उतर आना ,फिलास्फिक्ल चेहरा बनाये रखना ,हवाई बातें करना , बड़ी बड़ी बाते लिखना।कुछ भी कर लेने का प्रयास। अनंत निडर प्रयोगधर्मी। परम्परा से बेख़ौफ़।
सचमुच अत्यंत अस्वाभाविक।
और यह सारे तेवर एक छोटे कसबे नुमा शहर में जहाँ न कोई खास सुविधा ,न कोई प्रेरणा, न साथ और में जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं पर जो लड़े जा रहा है सारी लडाई अपने आप से ,अपनों से, अपने परिवेश से वह भी अनदेखे सपनों को बचाने की लड़ाई।
बेशर्मी के सिवा उस वक्त मेरे पास कोई साधन था ही नहीं - बस बेशर्म की तरह उफनना ,बहना . मैं आज समझ पा रहा हूँ मैंने अपने से ही अपना अपमान कई बार और तीक्ष्ण किया था
लगता है , अब समझता हूँ ,आभाव ने जहाँ मुझे एक और झुझारू ,लड़ाकू बना दिया वहीं ईर्ष्यालु ,शक्की ,झक्की , कल्पनाशील ,बना डाला .
आज समझ में आता है ,वास्तविक स्थिति इतनी भयावह थी की मैं वास्तविकता के धरातल को बिना छुए ही हवा में .ही अपना भविष्य तलाशने निकल पड़ता था और यह दुस्साहस मुझे तिरस्कार , उपहास का पात्र बनाता था. मेरी नींव का अभाव ही मेरे अपमान का कारण होता था और उपर से मेरा उफान उस अपमान को और बढ़ा देता था ,अपमान करने वाले को मेरी यह परिस्थिति और स्थिति उकसाती थी।
वैसे अब पता चलता है कि वह एक भूख थी , सम्मान की , पहचान की , अरमान की जिसे अपमान ने और तेज कर दिया।
अब पता चलता है वह एक यात्रा थी - अस्तित्व के खोज की - एक लड़ाई थी जीवन की रक्षा की।
बस मैं लिख , कह,कर बता पा रहा हूँ , निर्ल्लज भाव से अपने आप को आप सबके समक्ष रख कर स्वीकार कर ले रहा हूँ - किये जा रहा हूँ।
क्या अँधेरा था , घटाटोप।
अपमान की भयंकर आंधी चल रही थी .नींव सारी रोज ब रोज उखड़ती जा रही थी .निराशा का गहरा गड्ढा . इन सब के बीच मेरा अपना विद्रोही शरीर और मन।
मैं था की तमाम झंझावातों के बाद भी उफनता ही जाता था . आज समझ में आता है की मैं कितना गतिशील था- हो सकता है उसके लिये जिद्दी ,उदंड ,झक्की ,सनकी ,अपनी धुन का पक्का आदि शब्द अधिक उचित हो . मेरे अन्दर कहाँ से उर्जा आती थी पता नहीं .आज समझ में आता है की मैं सचमुच एक समस्या ही रहा होऊंगा . विकट बालक , बात बात में अड़ जाना , बहस पर उतर आना ,फिलास्फिक्ल चेहरा बनाये रखना ,हवाई बातें करना , बड़ी बड़ी बाते लिखना।कुछ भी कर लेने का प्रयास। अनंत निडर प्रयोगधर्मी। परम्परा से बेख़ौफ़।
सचमुच अत्यंत अस्वाभाविक।
और यह सारे तेवर एक छोटे कसबे नुमा शहर में जहाँ न कोई खास सुविधा ,न कोई प्रेरणा, न साथ और में जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं पर जो लड़े जा रहा है सारी लडाई अपने आप से ,अपनों से, अपने परिवेश से वह भी अनदेखे सपनों को बचाने की लड़ाई।
बेशर्मी के सिवा उस वक्त मेरे पास कोई साधन था ही नहीं - बस बेशर्म की तरह उफनना ,बहना . मैं आज समझ पा रहा हूँ मैंने अपने से ही अपना अपमान कई बार और तीक्ष्ण किया था
लगता है , अब समझता हूँ ,आभाव ने जहाँ मुझे एक और झुझारू ,लड़ाकू बना दिया वहीं ईर्ष्यालु ,शक्की ,झक्की , कल्पनाशील ,बना डाला .
आज समझ में आता है ,वास्तविक स्थिति इतनी भयावह थी की मैं वास्तविकता के धरातल को बिना छुए ही हवा में .ही अपना भविष्य तलाशने निकल पड़ता था और यह दुस्साहस मुझे तिरस्कार , उपहास का पात्र बनाता था. मेरी नींव का अभाव ही मेरे अपमान का कारण होता था और उपर से मेरा उफान उस अपमान को और बढ़ा देता था ,अपमान करने वाले को मेरी यह परिस्थिति और स्थिति उकसाती थी।
वैसे अब पता चलता है कि वह एक भूख थी , सम्मान की , पहचान की , अरमान की जिसे अपमान ने और तेज कर दिया।
अब पता चलता है वह एक यात्रा थी - अस्तित्व के खोज की - एक लड़ाई थी जीवन की रक्षा की।
बस मैं लिख , कह,कर बता पा रहा हूँ , निर्ल्लज भाव से अपने आप को आप सबके समक्ष रख कर स्वीकार कर ले रहा हूँ - किये जा रहा हूँ।
परमात्मा की कृपा और अपनों की दुआएं का जब सम्मिश्रण होता है तब किसी सदी में एक "एकलव्य" का प्रादुर्भाव होता हैं। भले ही एकलव्य को मुख्यधारा में तत्कालीन समाज के पुरोधा न आने दें और उससे "गुरुदक्षिणा" के रूप में उसकी योग्यता का बलिदान ही माँग लें लेकिन इतिहास की नजर में "योग्यता एवं व्यक्तित्व" एक अध्याय के रूप में जुड़ ही जायेगी।
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