Sunday, 13 July 2014

जो भी जहाँ से भी आता हैं हमें सपने बेंचने लगता हैं।
 हम सपनों  के ग्राहक या उपभोक्ता भर क्योँ रह जाते हैं।
हम अपने सपने उगाते क्यों नहीं , जगाते क्यों नहीं।  हम अपने ही सपनों को जीते क्यों नहीं।
हम सपनों को अपने गर्भ में धारण कर पूरी श्रद्धा से गर्भ काल निबाह कर  एक सम्पूर्ण स्वप्न को जन्म दे उसका पूर्ण लालन पालन क्यों नहीं करते।
वे हमें सपने बेचने में सफल क्यों हो जाते हैं - हमारे पास अपने सपने नहीं है, तभी न। 

No comments:

Post a Comment