Tuesday, 24 July 2018

मुझे लेकर मेरी माँ पिताजी को शुरू से ही सन्देह था। मैंने महसूस किया। नौ साल की उम्र से ही मुझे महसूस होने लगा था।
उसके आधार अब जाकर स्पष्ट हो रहे हैं।
जिद्दी होना तो एक कारण था। पर साफ साफ बोल देना, कुछ भी छिपा नहीं पाना, झूठ नहीं बोल पाना, सत्य के प्रति अब्यवहारिक निष्ठा, अपनी आंतरिक कमजोरियों के प्रति लापरवाह रहना, अपनी सकारात्मक क्षमता के प्रति दुराग्रह, दूरगामी लक्ष्य निर्धारित कर डालना, इतिहास बनने या बनाने का जूनून, आदर्श स्थापित कर ही डालना है यह संकल्प, परम्परा से - प्रचलन से - न बंधना- न डरना, साधनों की परवाह न कर नये अनजान रास्तों पर चल पड़ने का उत्साह या नासमझी वाला कदम -
ये सब मिल कर मेरे प्रति संशय , सन्देह पैदा करने के लिए आज तक पर्याप्त है।
झूठ बोलने का प्रयास करते ही में असहज हो जाता औऱ पकड़ लिया जाता कि मैं झूठ बोल रहा हूँ।
मेरा चेहरा, हाव भाव भी मेरी मनोदशा स्पष्ट बता देता था, आज भी। मैं मेनुपुलेट नहीं कर पाता।
मेरा सत्य के प्रति स्वाभाविक आग्रह, परम् निष्ठा अब्यवहारिक सिद्ध करने के लिये पर्याप्त था, है।
 यह ग़ैरअनुपतिक था, यह अब समझ में आया। इतना आदर्शवादी, कठोर नीतिवादी नहीं हो सकता कोई इस दुनिया में।
फिर में शुरू से ही तड़ाक करने, एकाएक कहीं भी ढीठ की तरह रुक जाने, अटक जाने, भड़क जाने, या यूं टर्न लेने का भी दोषी हूँ। इस तरह का आचरण भी मेरे प्रति संशय को जन्म देता है।
यह स्वाभविक आधार है संशय का।
अब समझ में आता है, नीतियाँ मेरे लिये ही बनी है, में नीतियों के लिये नहीं।
नीति या मूल्य मेरे स्वामी नहीं।
पर आज के पहले यह सब समझ में क्यों नहीं आया ?
कहाँ त्रुटि रह गई ?
खामखाह सब पर पूर्ण विश्वास करता गया। खामखाह जानते हुए भी धोखा खाते गया।
धोखा देना सिख ही नहीं पाया क्या?
मैंने उपलध साधनों की संभावना के परे जा कर सपने देखे, उन्हें साकार करने का प्रयास किया, यह दुस्साहस ही था और प्रथम दृष्टया अविश्वास का स्पष्ट और पुख्ता आधार।

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