Thursday, 26 July 2018

पूरी जिंदगी एक प्रवाह में जीना , एक लय में जी लेना ,एक तान में जीना ,एक सिरे से दूसरे सिरे तक की जिंदगी एक साथ जीना ,पूरी की पूरी जिंदगी जीना ,इसका मजा ही कुछ और है। टुकड़े - टुकड़े में जिंदगी जीना, टूट -टूट  कर जिंदगी जीना,वह मजा नहीं देती  है।
कई बार व्यक्ति को लगता है,अब टूट जाऊँगा , पर इच्छा शक्ति  से व्यक्ति टूटते टूटते रह जाता है।
कुछ यदि टूट ही जाते है तो पुराणी जिंदगी सिरे से ख़ारिज कर अपने में नया जीवन श्रोत उत्पन्न कर डालते हैं। नई जड़ें निकलते हैं। नई कोपल फूट पड़ती है।
पुराना जीवन सम्पूर्ण रूप से व्यर्थ हो चूका है। कुछ नहीं बचा। टूट चुके अंश को ढो कर अब क्या होगा।
लोग खामखा अपने आप को कबड़ीखाना बना डालते हैं।
मेरे ख्याल में अपने अंदर के कबाड़खाने को फेंकने की सबसे अच्छी कवायद  है , पुराने टूटे फूटे क्षणों  की ,यादों  की  खुली प्रदर्शनी लगा डालना। स्वयं कोअपने पुरे कबाड़ख़ाने के साथ लोगो के सामने खोल डालना।
कबाड़ख़ाने कि गुनसाइन  महक भी ख़त्म हो जायेगी ,देखने वाले उसी कबाड़ खाने से कुछ  अपने मतलब की चीजें ले जायेंगे ,आप हलके  हो जायेंगे।
कबाड़ख़ाने के भी ग्राहक होते है। कुछ को आपके रद्दी कबाड़ख़ाने मे ही अपने मतलब का कुछ मिल जायेगा। आप का कबाड़ साफ और उनका मसरफ पूरा हुआ। बन गई बात।
हाँ ,अपने कबाड़ख़ाने से मोह रखोगे तो दिक्कत है। कई बार हम और आप अपना कबाड़ , शेष स्मृतियाँ ,खट्टे मीठे अनुभव आम नहीं कर पाते। खुद से ही डर जाते हैं। मेरे अपने ही पाप मेरे ही सिर चढ़े रहते हैं। मैं उसे आपके और सबके सामने क्यों नहीं स्वीकार कर पाता।
पाप की स्वीकारोक्ति अत्यंत साहस की बात है।  पर दोष स्वीकार करने से प्रायश्चित का मार्ग प्रशस्त होता है। इस रस्ते से पापका भर कम हो जाता है।
पर, पाप  मैंने किया -इसे स्वीकार करना ही होगा।
अपने किये पाप को दिमाग के एक कोने में छिपा देना सरल तो है ,पर वह अंदर ही अंदर एक अजीब सी सिरहन पैदा कर डालता है। यह सिहरन व्यक्ति कि आतंरिक तथा वाह्य, दोनों ही कांति  ले उड़ती है।
सर्वोत्तम तो यह है कि पाप से बचो।
पर मनुष्य हो ,पाप-पुण्य ,गुण-दोष ,क्रिया-प्रतिक्रिया ,मनुष्य के साथ ही रहेगी। लाख प्रयत्न के बाद भी पापों से बचना सम्भव नहीं। हाँ , पापबोध से बचा जा सकता है।  पाप बोध से बचने का एक ही रास्ता है ,दांत पर दांत चढ़ा कर अपने पाप को स्वीकार कर डालो। उसे सार्वजनिक कर डालो। स्वयं शुद्धता आएगी , पाप के मल को साथ ले जायेगी।
अपने दिमाग में कबाड़ ,कूड़े -करकट  को प्रश्रय न दें। जब अवसर मिले तब अपने पाप को ,कूड़े -करकट को सार्वजनिक कर डालें। खुले विचारों की खुली हवा लगने दें।  पाप उपयोगी है। यह दुःख देता है। पाप से विपत्ति आती है। विपत्ति आने पर पाप  के कारणों- विपत्ति कारकों  की खोज होती है। तब उस परम शक्ति का स्मरण हो आता है।
इस परम शक्ति के सामने पाप और पापी जैसे ही उपस्थित होते है  पुनः व्यक्ति-जीव निर्मल हो जाता है।
पाप  के ताप तक प्रकाश को अंदर तक  जाने दॊ।
अपने अंदर के पाप-ताप  को जानो, स्वीकारो , फिर सार्वजनिक कर डालो। आपके पाप की स्वीकारोक्ति कहाँ -कहाँ निर्मलता लाएगी कोई नहीं जनता।
फिर कुछ पेशेवर कबाड़ी हैं   घर घर घूम घूम कर कबाड़ ख़रीदा करते हैं।
ऐसे संतों के सामने अपना कबाड़ रख भर दो ,देखो कैसी सहजता के साथ आपके कबाड़ को जगह लगा देते हैं। ठिकाने लगा देते हैं।
केवल अपने कबाड़ को सार्वजनिक करने का साहस पैदा करो ,सार्वजानिक कर डालो ,यह सम्भव है।

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