Thursday, 4 July 2013

बचपन क्यों है बिता जाता

आते पत्ते, जाते पत्ते, यह वृक्ष कभी क्या रोता है,
तपती धूप, काली रात, यह वृक्ष कभी क्या सोता है।

टिक टिक सूई चलती जाती, पल पल क्या घड़ी गिनती है,
लहरें आती ,लहरें जाती,किनारे फिर कर कब आती है।

बन बाराती तारे आये, क्या खूब, ब्याह रचाने रातों का
अहले- सुबह बारात न ठहरी ,पता भी न चला रातों का।

कित कित ,कित कित खेलती, खेले खेल बचपन का
... देखते देखते गुजरा बचपन,पता भी न चला बचपन का।

क्यों पत्ता यूँ ही सूखा जाता, क्यों घड़ी यूँ ही चलती जाती
बचपन क्यों है बिता जाता, हर रात क्यों है ढलती जाती।

मुट्ठी अब क्यों नहीं तान रहा, अब भी क्यों नहीं पहचान रहा
तन में,मन में, अपने सपनों में, डाले नही क्यों प्रण-प्राण रहा।

रहा न कुछ भी शेष, न रहेगा, न यह रहा, न वह रहा
कातर क्यों, आतुर क्यों, कुछ न रहा ,कहा या अनकहा।

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