अकेले क्यों खड़े हो
कब से अपलक खड़े
यूँ क्यों अड़े हो
अकेला चल लेना
तो तब भी सहज है
पर आकेला खडा रहना
चुपचाप यूँ खड़ा रहना
कुछ भी नहीं कहना
... निर्विकार साक्षी तुम हो
विष का पान सहज है
त्रिभुवन-ताण्डव सहज
एकाकी-निर्विकार तुम हो
आविचल कैसे रहते हो
अविरल कैसे रहते हो
इतने थिर-धिर तुम हो
बंधी सांस आँख खुली
तब भी निःशब्द पड़े
कब से अपलक खड़े
यूँ क्यों अड़े हो
अकेला चल लेना
तो तब भी सहज है
पर आकेला खडा रहना
चुपचाप यूँ खड़ा रहना
कुछ भी नहीं कहना
... निर्विकार साक्षी तुम हो
विष का पान सहज है
त्रिभुवन-ताण्डव सहज
एकाकी-निर्विकार तुम हो
आविचल कैसे रहते हो
अविरल कैसे रहते हो
इतने थिर-धिर तुम हो
बंधी सांस आँख खुली
तब भी निःशब्द पड़े
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