भाषा , कुछ लिखा, या कुछ विचारा- इनमें से कोई भी शुद्ध रूप से मौलिक हो ही नहीं सकता। जब तक हम कुछ पढ़ने ,लिखने ,बोलने या कि समझने लायक बनते हैं तब तक हमारी मौलिकता पर एक दबाव पहले की भाषा, पहले बोला गया या सुना गया का प्रभाव पड़ चुका होता है। उसे ही हम इस या उस रुप में दोहरा भर देते हैं।
य़दि कुछ भी पूर्ण रुपेण नया होता है तो न तो हम खुद उसे कह, बोल या लिख-समझ पाते हैं न ही वह संप्रेषणीय रह जाता है।
उसे संप्रेषित करने के लिये पुनः उसी पुरानी भाषा, शैली, पद्धति का अवलंब लेना ही पड़ता है।
य़ही बात विचारों के साथ होती है।
इसी कारण जड़ता आ ही जाती है।
अपने उपर परिवेश से उत्पन्न इस प्रभाव के कारण स्वत़त्र और मौलिक विचार, भाषा , लेखन और प्रस्तुति अत्यन्त कठिन हो जाती है।
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