बस अकेले अपनी धुन में बिना डरे , बिना झिझके, लगातार विवेक -प्रकाश के सहारे अनजान रास्तों पर साफ- सफाई से चलते रहना, जो , जब , जिसका , जितना ,जैसा उचित हो , आवश्यक हो , अनुमत हो कर दिया , बिना श्रेय -यश लिये ; बिना अपराध-बोध के ,बिना ग्लानि के , बिना राग-द्वेष-पूर्वाग्रह के, अपने लिये जो कुछ भी जैसा जितना निर्धारित है, उसके अलावा कुछ भी अन्यथा अपेक्षा के बिना , कई बार अपने आप से अलग और शायद उपर उठ कर भी ,अपने आप को कितनी बार अलग रखना पड़ा, अपने आप को बांधना,डाँटना, छिपाना पड़ा, कड़ा करना पड़ा , कई बार केवल सही के आग्रह के कारण अप्रिय खतरे उठाने पड़े, नाराजगी भी झेलनी पड़ी, आक्रमण भी हुए - वैसे इसी यात्रा क्रम में यात्रावसान विन्दु तक अनुभव को विवश किया गया- पर मार्ग बदलना सवीकार नहीं रहा - बस चलता ही रहा
- बस आज तक की यात्रा का यही वृतान्त है -
- अकिन्चन से कंचन बनने की कहानी है ,
- परमपिता का आशीश है
- नहीं पता किसे-किसे ,क्या-क्या, कब-कब और क्यों याद करुँ, किसे औेर क्या, कब भूल जाउँ, किस-किस को धन्यवाद दूँ, किस-किस के कौन-कौन से ॠणों से उॠण होने का जतन करूँ या न करुँ
- बस आज तक की यात्रा का यही वृतान्त है -
- अकिन्चन से कंचन बनने की कहानी है ,
- परमपिता का आशीश है
- नहीं पता किसे-किसे ,क्या-क्या, कब-कब और क्यों याद करुँ, किसे औेर क्या, कब भूल जाउँ, किस-किस को धन्यवाद दूँ, किस-किस के कौन-कौन से ॠणों से उॠण होने का जतन करूँ या न करुँ
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