Thursday, 11 September 2014

पहाड़ रोता रहा
तुम सोये रहे

नदियाँ बेघर हुई
तुम सोते ही रहे .

आज बगीचा चिल्लाया
अब भी तो जगो

खेत जल उठे
तुम खेलते रहे .

बचपन बिकता रहा
तुम खेल खेलते रहे

लाशें लटकती दिख रही
अब भी तो समेटो यह खेल .

पर्वतों को सोने दो
नदी को बस बहने दो

बगीचे को गाने दो
बचपन को फिर आने दो

खेत को जगने दो
लाश न अब लटकने दो

बंद करो जमात में नाड़े खोलना
अपने आप पर शर्म को आने दो . 

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