औरंगाबाद का इलाका भारी गरीबी का मारा हुआ है। वैसे इस जिले का अच्छा खासा भाग सिंचित है। खेती भी होती है , पर खेती जीवन चर्या है , व्यवसाय नहीं। खेत है - जमीन है पर यह अस्तित्व है , सम्पत्ति नहीं , सम्मान है , साध्य है पर मात्र साधन नहीं। भवन यदि कहीँ दिखे तो भावना जाने , माने। उसका मूल्य न लगावें।
वर्तमान में लोगों के पास जमीन से चिपके रहने के आलावा कोई काम नहीं है। खेत जमीनों के साथ लगाव -जुड़ाव के कारण लगभग सारी आबादी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जमीनों को बचाने , हड़पने , बेचने या खरीदने के क्रम में लड़ती झगड़ती , कचहरी दौड़ती , थानेदारों , राजस्व कर्मचारियों , अमीनों के पीछे दौड़ती भागती नजर आती है।
खेती तो है , पर उसका न तो कोई ऊद्देश्य , न गन्तब्य , न कोई निर्धारित स्वरूप - बीएस जो होते आया है किसी तरह रस ७०-८० % तक निबाह देना है। जो इससे अभी भी जुड़े है वे श्रद्धा से नहीं जुड़े मजबूर से है - पर छोड़ कर करें तो क्या। मुझे तो समझ में आज भी नहीं आया की यह खेती , इस स्वरूप में श्रम का नियोजन है या अपब्यय।
जनसँख्या बढ़ती चली गयी। जनसँख्या -बढ़ते परिवार के दबाव में गांव के अगल बगल के खेत नई फूस की झोपड़ियो में तब्दील होते चले गए। शहरों का आकार बढ़ता चला गया। पेड़ कटते चले गए। जमीन की ऊपरी सतह बेरहमी से खरोंच दी गई। जिन खनिजों को बनने में लाखों करोड़ों वर्ष लगे होंगे उन्हें बेरहमी से निकल जाने लगा। पेड़ , बृक्ष , लता , झाड़ , झाडी , घास , खर , पतवार , जानवर , पक्षी , मल , मूत्र , जल , वायु , मछली , नदी , तालाब , पहाड़ , मन्दिर , मस्जिद - धन , धर्म, शिक्षा , शिक्षक , प्रशिक्षक , चिकित्सा , चिकित्सक , लेखन , लेखक , लेख , पुस्तक , विचार , कलम , कूची , गाना , बजाना , नाचना , कूदना , खेलना , पुरुष , स्त्री ,परिवार - सब कुछ ब्यापारिक सामग्री बन गए। जमीन पर बेतहासा दबाव बढ़ गया। सब कुछ असन्तुलित हो गया। लोगों को अनावश्यक रूप से राजनीती की पट्टी पढ़ाई गयी। अपराध वृत्ति को बढ़ावा मिला। दुःसाहस आम होता चला जा रहा है। नियंत्रण बहुत कम होता जा रहा है। कायरता , दब्बूपन , डॉ भी बढ़ गया। अनुचित से न परहेज न कोई विरोध। नुल्य बदल गया। नई परिभाषा गढ़ी जाने लगी।
इसी उहापोह के बिच , इन्हीं सब के फलाफल स्वरूप डर कर कहीं अपराधियों से , कहीं ब्यापारियों से , कहीं धार्मिक नेताओं से राजनीति ने सहायता मांगनी शुरू की और गठजोड़ बना लिया।
अपने राजनैतिक षड्यन्त्र के , अपने कुकृत्य के फलाफल स्वरूप राजनेता कभी कभार पर नियमित रूप से अशांति , युद्ध आदि का ढोंग किया करते हैं। इन युद्धो में कतिपय निरीह लोग मर जाते है या मार दिये जाते हैं या मरवा दिये जाते है - एक आतंक का वातावरण बना रहे इस लिए।
मर जाने के लिए जोश चढ़ाने वाला वातावरण बनाया जाता है। मरणा मारना सिखाया जाता है। मरने मारने के साधन जुटाए जाते हैं। विभिन्न नाम- कारकों के आधार पर उन्माद पैदा किया करवाया जाता है। गीत लिखवाये जाते है। बजे बजवाये जाते है - उकसाने के लिए। हमको आपको शहीद होने के लिए ललकारा जाता है - कभी नदी के इस पार , कभी उस पार ,
वर्तमान में लोगों के पास जमीन से चिपके रहने के आलावा कोई काम नहीं है। खेत जमीनों के साथ लगाव -जुड़ाव के कारण लगभग सारी आबादी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जमीनों को बचाने , हड़पने , बेचने या खरीदने के क्रम में लड़ती झगड़ती , कचहरी दौड़ती , थानेदारों , राजस्व कर्मचारियों , अमीनों के पीछे दौड़ती भागती नजर आती है।
खेती तो है , पर उसका न तो कोई ऊद्देश्य , न गन्तब्य , न कोई निर्धारित स्वरूप - बीएस जो होते आया है किसी तरह रस ७०-८० % तक निबाह देना है। जो इससे अभी भी जुड़े है वे श्रद्धा से नहीं जुड़े मजबूर से है - पर छोड़ कर करें तो क्या। मुझे तो समझ में आज भी नहीं आया की यह खेती , इस स्वरूप में श्रम का नियोजन है या अपब्यय।
जनसँख्या बढ़ती चली गयी। जनसँख्या -बढ़ते परिवार के दबाव में गांव के अगल बगल के खेत नई फूस की झोपड़ियो में तब्दील होते चले गए। शहरों का आकार बढ़ता चला गया। पेड़ कटते चले गए। जमीन की ऊपरी सतह बेरहमी से खरोंच दी गई। जिन खनिजों को बनने में लाखों करोड़ों वर्ष लगे होंगे उन्हें बेरहमी से निकल जाने लगा। पेड़ , बृक्ष , लता , झाड़ , झाडी , घास , खर , पतवार , जानवर , पक्षी , मल , मूत्र , जल , वायु , मछली , नदी , तालाब , पहाड़ , मन्दिर , मस्जिद - धन , धर्म, शिक्षा , शिक्षक , प्रशिक्षक , चिकित्सा , चिकित्सक , लेखन , लेखक , लेख , पुस्तक , विचार , कलम , कूची , गाना , बजाना , नाचना , कूदना , खेलना , पुरुष , स्त्री ,परिवार - सब कुछ ब्यापारिक सामग्री बन गए। जमीन पर बेतहासा दबाव बढ़ गया। सब कुछ असन्तुलित हो गया। लोगों को अनावश्यक रूप से राजनीती की पट्टी पढ़ाई गयी। अपराध वृत्ति को बढ़ावा मिला। दुःसाहस आम होता चला जा रहा है। नियंत्रण बहुत कम होता जा रहा है। कायरता , दब्बूपन , डॉ भी बढ़ गया। अनुचित से न परहेज न कोई विरोध। नुल्य बदल गया। नई परिभाषा गढ़ी जाने लगी।
इसी उहापोह के बिच , इन्हीं सब के फलाफल स्वरूप डर कर कहीं अपराधियों से , कहीं ब्यापारियों से , कहीं धार्मिक नेताओं से राजनीति ने सहायता मांगनी शुरू की और गठजोड़ बना लिया।
अपने राजनैतिक षड्यन्त्र के , अपने कुकृत्य के फलाफल स्वरूप राजनेता कभी कभार पर नियमित रूप से अशांति , युद्ध आदि का ढोंग किया करते हैं। इन युद्धो में कतिपय निरीह लोग मर जाते है या मार दिये जाते हैं या मरवा दिये जाते है - एक आतंक का वातावरण बना रहे इस लिए।
मर जाने के लिए जोश चढ़ाने वाला वातावरण बनाया जाता है। मरणा मारना सिखाया जाता है। मरने मारने के साधन जुटाए जाते हैं। विभिन्न नाम- कारकों के आधार पर उन्माद पैदा किया करवाया जाता है। गीत लिखवाये जाते है। बजे बजवाये जाते है - उकसाने के लिए। हमको आपको शहीद होने के लिए ललकारा जाता है - कभी नदी के इस पार , कभी उस पार ,
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