श्रम उत्पादक रहेगा या नहीं , यह भविष्य के गर्भ में है। उत्पादक रहेगा भी तो उपयोगी कब , कितना , किसके लिए होगा यह भी भविष्य ही बताएगा।
यह एक रहस्य है। इसका पूर्वानुमान लगाने की कोशिश परिश्रम , सावधानी और समझ से की जा सकती है। कितने सफल होंगे कोई नहीं बता सकते।
नौकर वृत्ति न तो इस रहस्य को समझने की कोशिश करती है , सम्भवतः समझ भी नहीं सकती है ; और सबसे ऊपर - इस पचड़े में पड़ना ही नहीं चाहती। वह अनिश्चितता है यह जानते हुए भी इस अनिश्चितता का सामना करने को तैयार नहीं।
ऐसी वृत्ति वाले लोगों का सोच समाज का भला नहीं क्र सकता।
एक समय की क्रन्तिकारी विचारधारा इसी कारण अपनी प्रासंगिकता खो बैठी है। साम्यवाद में मनुष्य के श्रम में अंतर्निहित अनुत्पादक रहने की एक सम्भावना का उचित आकलन नहीं किया गया।
समाज का पूरा का पूरा तबका सफलता में तो हिस्सेदार होने के लिए तैयार रहता है पर असफलता में अधिकांश भाग खड़े होते है।
असफलता के क्षणों में जो छोटा सा वर्ग स्वेच्छा से जिम्मेवारी लेने आगे आता है, भूखे रहने को तैयार रहता है उस वर्ग के त्याग का क्या कोई महत्व नहीं है ?
समय वाद में इस विंदु का समुचित अध्ययन हुआ ही नहीं।
वह वर्ग जो स्वेच्छा से असफलता की जिम्मेवारी लेने आगे आता है , क्या वह अतिरिक्त पारितोषिक का अधिकारी नहीं है। साम्यवाद में इस अवधारणा का मूल्यांकन किया ही नहीं गया।
जिस समाज में जितने लोग इस अनुत्पादक श्रम के खतरे को स्वेच्छा से वहन करने के लिए आगे आते हैं वः समाज उतना ही समर्थ और प्रगतिशील होगा।
यह एक रहस्य है। इसका पूर्वानुमान लगाने की कोशिश परिश्रम , सावधानी और समझ से की जा सकती है। कितने सफल होंगे कोई नहीं बता सकते।
नौकर वृत्ति न तो इस रहस्य को समझने की कोशिश करती है , सम्भवतः समझ भी नहीं सकती है ; और सबसे ऊपर - इस पचड़े में पड़ना ही नहीं चाहती। वह अनिश्चितता है यह जानते हुए भी इस अनिश्चितता का सामना करने को तैयार नहीं।
ऐसी वृत्ति वाले लोगों का सोच समाज का भला नहीं क्र सकता।
एक समय की क्रन्तिकारी विचारधारा इसी कारण अपनी प्रासंगिकता खो बैठी है। साम्यवाद में मनुष्य के श्रम में अंतर्निहित अनुत्पादक रहने की एक सम्भावना का उचित आकलन नहीं किया गया।
समाज का पूरा का पूरा तबका सफलता में तो हिस्सेदार होने के लिए तैयार रहता है पर असफलता में अधिकांश भाग खड़े होते है।
असफलता के क्षणों में जो छोटा सा वर्ग स्वेच्छा से जिम्मेवारी लेने आगे आता है, भूखे रहने को तैयार रहता है उस वर्ग के त्याग का क्या कोई महत्व नहीं है ?
समय वाद में इस विंदु का समुचित अध्ययन हुआ ही नहीं।
वह वर्ग जो स्वेच्छा से असफलता की जिम्मेवारी लेने आगे आता है , क्या वह अतिरिक्त पारितोषिक का अधिकारी नहीं है। साम्यवाद में इस अवधारणा का मूल्यांकन किया ही नहीं गया।
जिस समाज में जितने लोग इस अनुत्पादक श्रम के खतरे को स्वेच्छा से वहन करने के लिए आगे आते हैं वः समाज उतना ही समर्थ और प्रगतिशील होगा।
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