Sunday, 6 September 2015

धन्य हो मेरी माँ ! वे मुझे एक नौकर के साथ जबरदस्ती चीखते -चिल्लाते-अनवरत- रोते- गालियाँ बकते स्थिति में भी स्कूल जाने को बाध्य करती थी. मेरी माँ भी साथ हुआ करती थी.  मैं सड़कों पर  हाथ -पैर मारता, चीखता , नौकर के कन्धे पर लगभग लाद कर स्कूल लै जाया जाता, नौकर को मारता , शायद माँ को भि ग्ली बकता- मारता. याद पड़ता है कि मैं कभी कभी रामशरण नाम के उस घरेलू नौकर को दाँत भी काट लेता था. कलकत्ते की ब्यस्त सड़कों पर चिल्लाता मैं और मेरा हाथ पकडे़े या कन्धे पर बैठाये या लगभग दबाये हुै रामशरण और पीछे पीछे मेरी माँ. क्या दृश्य रहा होगा.
मुझे याद  पड़ता है, माँ को राह चलते लोग सलाह देते थे कि इस तरह स्कूल जबरदस्ती क्यूँ भेजती हैं.
माँ का उत्तर होता था- यह स्कूल नहीं जाने के लिये ही तो यह सब नाटक ड्रामा कर रहा है, यदि इसे पता चल गया कि इस तरह उछल कूद करने से यह स्कूल जाने से बच जायेगा तब तो यह रोज यही ड्रामा करेगा. तब तो यही इसकी आदत ही बन जायेगी . वह आगे कहती , पर यदि इसे दो चार बार समझ में आ जायेगा कि किसी भी किमत पर इसे स्कूल जाना ही पड्देगा और यह ड्रामा काम नहीं ही आयेगा, तो यह खुद ब खुद आपने को बदल लेगा.
मुझे यह दृश्य आज भी याद है - हू बहू - कलकत्ता के मछुआ बाजार- रविन्द्र सरणी, फूल-कटरा- मारवाड़ी रिलिफ सौसाईटी, बौल की आस्पताल जहाँ शायद मेरा जन्म हुआ था और डीडू माहेश्वरी स्कूल .
बड़े होने के बाद मेरी माँ के मुँह से यह प्रकरण सैंकड़ो बार सुन चुका हूँ.
माँ इस दृश्य को मेरी पत्नी , बच्चों , मेरे जूनीयर , मेरे सिनीयर  सभी को कई बार बता चूकी है . सेवा काल में भी माँ ने यह प्ररण बार बार मेरे छोटे -बड़े सभि को कई बार बताया.
अरे हा़ , याद आया  , एक बार मैंने सकूल जाते वक्त  माँ को धमकी दी कि मुझे स्कूल मत भेजो , नहीं तो मैं पैन्ट खोल दूंगा, पर माँ का दो टूक जबाब था ,तब भी तुम्हें स्कूल तो जाना ही पड़ेगा , शर्म आवेगी तो तुमको.
यह मेरे जीवन का एक ऐसा अनुभव है जिसे मैं कभी भुला नहीं पाया.
सच है , हमारा शरीर , हमारी बुद्धि विद्रोह करती है क्यों कि शरीर औेर बुद्धि की स्वतन्त्रता का अपहरण होता प्रतीत होता है .
शरीर औेर बुद्धि  तो परम् स्वतन्त्र रहना चाहते हैं ,जब कभी इन्हें किसी विशीष्ट मार्ग पर चलाने का य् किसी विशेष साँचें में ढालने का प्रयास होता है, और इन पर नियंत्रण लगाया जाना अभीष्ट होता है शरीर तो शरीर , सारी मन -बुद्धि, ये सभि मिल कर एक साथ उस नियंत्रण का विरोध करते हैं .
यह बात मैं अधिक शिद्दत से महसूस करत् हूँ.
बाद के जीवन में मैंने अपने आप को बहुत से बन्धनों में बाँधा. बहुत से बंधन पूर्णतः स्वैच्छिक थे. आप चाहे तो उसको संयम का नाम दे सकते हैं. कुछ बन्धन परिस्थितिजन्य भी थे. कुछ  बन्धन आरोपित भी थे.अनैच्छिक दूसरौं द्वारा लादे गये थे.
पर मैंने पाया कि जब भि अपने आप को बाँधने का ,निर्देशित करने का , संयमित करने का प्रयास भी किया तो कम से कम एक बार तो किसी शक्ति ने उसका विरोध किया ही - कभी वह शक्ति आन्तरिक तो  कभी वह वाह्य होती है कभी वह सुक्ष्म, कभी तीब्र , कभी स्पष्ट , कई बार अस्पष्ट ,कभी प्रत्यक्ष, कभी परोक्ष.
चूँकि माँ ने बचपन में ही बता डाला था कि यह सब बन्धन से बचने का बहाना मात्र है , एक बार इस बहाने को मुँह लगाया  नहीं कि यह परिक जायेगा, बार बार आने वाला अप्रिय अनचाहा मेहमान बन जायेगा.
यह स्वाभाविक विरोध नहीं है, बन्धन से बचने का प्रयास भर है.

















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