Wednesday, 23 September 2015

हजारो साल पुराने ग्यान , विग्यान को फिर से बाद के हजारों साल के नये प्रकाश के आलोक में सुक्ष्म रूप से जाँच लेना,ज़ँचवा लेना, परख लेना, पुनःमुल्यांकन कर लेना, करवा लेना ; आवश्यक हो तो उसे संशोधित- परिवर्धित कर लेना ही उचित होगा.
खामखाह अनुचित भावना में विकास को बाधित करना उचित तो नहीं ही कहा जायेगा.
समय -परिस्थिति एवं पुनः विचार करने पर जो अनुचित प्रतीत हो, उससे मोह वश बँधे रहना,अथवा भय वश उसका त्याग नहीं करना, अथवा गलत एवं अनुचित जानते हुए भी उसे गलत कहने और मानने का साहस नहीं जुटाना प्रशंसनीय तो नहीं ही होगा.
Business and politics are not always spotless white .
समय तो अकेला ही आगे बढ़ता चला जाता है, रोकने पर भी रुकता ही नहीं - समय के बहुत दूर चले जाने के बाद ही कुछ बाते क्यूँ समझ में आती है भाई , पहले कोई क्यों नहीं समझाता, और पहले वह समझ क्यों नहीं आती.
यदि आप में से कोई अपने बच्चों को प्यार करता है, और उसका इजहार करना चाहता है, या बच्चों को खुश रखने के लिये कोई गिफ्ट देना चाहता है तो उनकी माँ को प्यार से प्रसन्न और खुश रखिये - बच्चों के लिये यह एक अच्छा गिफट होगा

वे जो संघर्ष करते हैं, लड़ने-मरने- जीतने -हारने और इन सब के बाद भी फिर से एक बार उठ कर दौड़ते हुए लड़ते रहने को तैयार हैं, वे सदैव प्रिय ही हो ; जरूरी नहीं - वे अप्रिय लगने , दिखने और समझ लिये जाने को तैयार रहते हैं - क्यों कि वे सफलता से अधिक सार्थकता को महत्व देते हैं और तात्कालिक से अधिक दिर्घकालिक दृष्टि रखते हैं.
वृक्षों से ही जंगल बनते हैं.
There is still a lot to learn even at this stage, wonderful learning and to increase digestion , further realities unfolding, really still so many unseen chapters to be visited , read , and imbibed. 
Will elaborate those later on.
Pleasant or unpleasant, but they are the real ones still to be seen , understood.
I did not spoil and stoop , If a win costs those , better to lose and wait for the history to declare you winner by remembering in the time to come
I could not read masked faces nor was able to mask my own.
I did not tolerate adulteration even after being suggested that that has been approved through customs and usages.
I was wrong when I insisted spotless white or real purity.
वकीलों का समाज नीचे से उपर तक समाज की अन्य सारी ब्यवस्थाओं के सामानान्तर फैले एक ब्यापक आईने की तरह है जिसमें गत, आगत तथा अनन्त , भूत-भविष्य सारे के सूक्ष्म लक्षण मिलते हैं, छायाचित्र दिखते है और परिश्रम करने पर समाधान भी, यह एक श्रोत- समूच्चय है
It is really difficult to be pure, popular ,relevant and useful, all at one time
तुमने मुँह क्या खोला , मैं तो सरे-आम हो गया,
बेपर्द होते ही मेरे लिये सारा जहाँ हमाम हो गया
उसने कहा - बड़े पोलिस्ड और सोफिस्टिकेटेड थे,
मैं ने पूछा- यह क्या है - पोजिटिव या कि निगेटिव
जबाब आया -सर, पोजिटिव,मिलते कहाँ है,ऐसे भी
हँस पडा़, काश ! कम से कम दूसरा छोर देख पाते
जिन्दगी, जाने तुम अब कब आओगी
मैं तुम्हारे पास अब आऊँ किस लिये
तुम- तुम्हारे ! अब मुझे पहचानेगा कौन
यादें यूँ मिटती है, सिलसिला पुराना है

उस एक तीखे घूँट का स्वाद आज भी बाकी है
बाकी की सारी तल्खियाँ भूलता ही जा रहा हू़
ऐ मेरे नन्हे दीये, बस तुम यूँ ही रौशन रहना
मैं जरा उपर जा, बस एक बार देख भर लूँ
फिर ईतमिनान से सो ही जाऊँगा.हाँ सो --
तुम्हारी चहचहाती रौशनी में वहाँ भी जी ----
हासिये पर रहना , अब नहीं सुहाता
एक और जंग लड़नी है फिर एक बार
Let me sail once more and once again
Newer world is yet to be explored and discovered
Let me burn midnight oil once again
Newer heights are yet to be scaled.
I must not stop around periphery
Newer centres have to be found.
दिल्ली हवाई अड्डे की चमचमाती फर्श, 
जिसे हर रोज मेरे पापा पसीने से साफ करते हैं
उस पर सू सू करता वह अंग्रेजी गिटपिटाता लाडला
कल अरसे बाद मेरे गाँव आया था, जूम लैन्स वाला कैमरा लिये
हेेन्ड पम्प पर बरतन माँजती मेरी बहन को नोट दीखा रहा था
उसे अपने ड्राईंग रूम ( )में सजाने ( ) के लिये जिन्दगी की जिन्दा फोटो ( )चाहिये थी्
इतिहास मेरे आगे आगे ही चल पड़ा, मेरे पीछे कोई वृतान्त ही नहीं था इस लिये इतिहास अभी तक मुझसे दूर ही रहा ---
-------- और अब तो ईतिवृतों की श्रंखला मेरे आगे आगे ही चलती जायेगी - मेरे पसीने की सुगंध वाले फूलों के रंग के संग इतिहास को अब तो बनना ही पडे़गा
बस खुशामदियों द्वारा खिलाया पिलाया मुष्टण्ड अहंकार न तब था न अब न आगे, न आगे , न साथ ,न पीछे.
दे सका सो शीश झुका संकोच सहित दिया, न दे सका तो आँखें नीची , गर्दन झुकी- पर पश्चाताप नहीं - न कभी कोई पाप बोध , न पुण्य- कामना
जो सामने आया वह उन्हीं की प्रेरणा से उन्हीं का ध्यान करते हुए जैसा समझ में आया करते गये , आगे बढ़ते गये - न कोई लगाव, न दुराव, न आकर्षण, न तिरस्कार, न ईर्ष्या, न घृणा
None is full and final . Keep on moving .
बस आज की ये दो नयी इँटें सम्भाल कर करीने से जमा कर रख सजा देने दो,
याद है, बीते कल की रक्खी वो दो इँटें जो सिलसिलेवार रखता चला आया हूँ
अगली सुबह को रखी जाने वाली इँटों की तलाश जारी है, जगह देख लिया हूँ
बस एक सिलसिला बन जाने दो, अपनी न सही , तुम्हारी जिन्दगी सजा देने दो.
मेरे आँगन की तुलसी , वह नित जलने वाला दीया, दूध देने वाली वह गाय , वह आशीश देने वाली माँ ,रोज मेरी प्यास बुझाने वाला वह चापाकल , वह आम का पेड़ और उसकी छाँव, वह केला का पत्ता-फल मेरे लिये तुम्हारे बताये बोधिवृक्ष, सूरज-चान्द, कामधेनु, देवी-माँ, गंगा-यमुना, कल्पतरु, अमृत-फल से बढ़ कर था , है , रहेगा.
मेरे नित्य के मेरी आँख के सामने के रोज काम आने वाले भगवान हैं ये मेरे. मेरा घर मेरा स्वर्ग , यहाँ बसती खिलखिलाती हँसी ही मेरा परम आशीर्वाद, मेरा सपना, इस पूरे परिवार के साथ मेहनत मेरी साधना और रोज परिवार के साथ भरपूर भौजन , खेल , नीन्द रोज प्राप्त होने वाला मौक्ष
आप जितने उगेंगे, मैं उतना ही जगुँगा, बढ़ूँगा.
आप जब जितना दबे -छँटे , मैं गया काम से .
वंशवाद पर सभी क्षेत्रों से सम्बन्धित सामग्री का मिडीया में विस्तार से उल्लेख मिलता है - सभी प्रकार की मिडीया में सब समय खुल के लिखा -बोला जाता है सिवाय एक क्षेत्र के जहा़ँ यह सबसे प्रखर और बहुतायत में हैं , शायद जड़ें अधिक गहरी हैं - वहाँ की न तो चर्चा, न परिचर्चा, न चरित्र चित्रण, न आलोचना , न समालोचना- परम स्वतंत्र न सिर पर कोउ - शायद कूछ तो है --
इस ओर इतना सन्नाटा ? बात क्या है ? बोलते क्यों नहीं ? मु़ँह तो खोलो !!
Or is it ?
Who are you to question and under what authority?
Who can question the king's soul and conscience ?
And the other way !!
Is it necessary to raise a finger on all and everything here ?
Why can't we trust even if it hurts at times?
It has proved itself at times and junctions .
Is not that enough to grant another lease of our trust ?
मेरे एक परम श्रद्धेय थे , अभी सशरीर हैं, जन्मजात महान थे- पूरा लम्बा जीवन सार्वजनिक सम्मानों ,स्विकृतियों से विभुषित .
सामाजिक , आध्यात्मिक , राजनैतिक , शेक्षणिक महामन् के रूप में आज भी स्वीकृत है.
भारतीय परिपेक्ष्य में लगभग सभी पदों के लिये वे समर्थ संभावित ब्यक्तित्व थे. मेरे अभिन्न ने मुझे उनसे परिचय करवाया.
लगभग चार-पाँच घन्टे मैं उनकी छाया की तरह एक जलसे में उनके व्यक्तिगत साहचर्य में था . जिस तरह मेरा परिचय करवा दिया गया था उसके बाद किसी अन्य आश्वस्ति की आवश्यकता न थी . चन्द मिनटों में मैं उनका अपना समान हो गया .
भीड़ थी . बड़े बड़े लोग एक एक कर या समुह में आ रहे थे , उनसे मिल रहे थे ,अभिवादन करने और महामना द्वारा अभिवादन वापसी का क्रम चल रहा था. बीच बीच में महामना अत्यन्त आश्चर्य -जनक ढंग से अत्यन्त गंभीर चिन्तन , विवेचना , मनन की मनः स्थिति में भी लगातार रहते थे. सार्वजनिक जीवन का सांगो-पांग पालन करते हुए भी वे लगातार तीब्र चीन्तन -मनन-अध्ययन में थे , यह मैंने स्वयं देखा -समझा, साक्षात्.
इसी क्रम में थोड़ा सा समय मिला .
उन्होंने कुछ गूढ़ रहस्यमय स्वानुभूति तथा उनका अन्वय-अर्थ-समाधान मुझे कृपा -पूर्वक बताया.मेरा दुःसाहस देखिये- नासमझी ही थी, जिद्दी स्वभाव तो शुरू से ही था- मैं महामना से बहस कर बैठा, असहमत हो चला.
शान्त चित्त महामना, जरा सा भी क्षोभ -विक्षोभ-खीझ बैचैनी नहीं .
शान्ति से मुझसे पूछा - तुम्हारी यह सहमति क्यों .
मैंने लगभग त्रक करते हुए कहा - आपकी बात समझ में नहीं आ रही.
पूछा महामना ने - और शैष बातें समझ में आ जाती है.
मैरा जबाब था- लगभग अहंकार के स्पष्ट पुट के साथ- सारी तो नहीं ही आती है , कुछ आती है कुछ समझने की कोशिश करता हूँ.
महामना- कैसे समझते हो
मैं - सुन , पढ़ ,जान ,समझ कर
महामना - कैसे जानते -समझते हो
मैं गर्व से - किताबें पढ़ता हूँ
महामना- किताबों में क्या होता है
मै- तथ्य
महामना - कैसे जाने की वही तथ्य है
मैं निरुत्तर
महामना- किताबों मै लिखा सब तुमने मान लिया
मैं लगभग सिर झुका चुका था
महामना- किताबों मे यदि गलत लिखा हो तो .
मैं निरुत्तर
महामना- किताबों में लिखा कभी अपने से जाँचा, परखा
महामना- या बस लिखा था सो पढ़ लिया और मान लिया
शर्म से गड़ा मैं- बस कुछ कुछ समझते हुए हिर झुकाये जा रहा हूँ
इस बीच दो चार आँसू भी आ चुके थे. भीड़ भरा माहौल था. महामना से मिलने वालों का क्रम लगातार चालू था
लगभग रात के ग्यारह बज रहे थे.
आने जाने वालों का क्रम टूट चला था
महामना लगभग पाँच घन्टे से मेरे साथ थे, आदभुत अनुभूति थी .
यह समय मेरे जीवन का कैसा समय था , नहीं कह सकता. मैं उनकी उपस्थिति मैं किस भाव रस में था, नहीं कह सकता.
परमात्मा उन्हें शतायु करे , भारत उनकी सेवा यथौचित रूप से प्राप्त करे .
लगभग साढ़े ग्यारह बजे ,लगभग मध्य रात्री, महामना ने समारोह स्थल से जाने की इच्छा ब्यक्त की,मेजबान ने अश्रुपूरित बिदाई दी. महामना गाडी पर बैठे. बाहर चारों ओर देखा . मुझे बुलाया गया. महामना भावुक हो चले .पूछे क्या चाहते हो . मैंने ईतमिनान से जबाब दिया स्व-अर्जित यश- श्रेय-वैभव- प्रेरण एवं शान्ति.
पूछा महामन् ने - और कुछ
मैंने बस कहा कभी भी आपके साथ बिताये इस समय को सार्वजनिक न करूँ, इस लोभ में न पडूँ, बस इतनाही , फिर आपसे मैं मिलने का उद्यम न करूँ, बस इतना ही. आपके मेजबान का मेरे उपर एसा ही भरोषा है.
महामना ने कहा - मेरा भी (______) उसपर एसा ही भरोषा है, मैं समझ गया उसी वक्त जब ( ) ने तुम्हारा परिचय उन शब्दों के साथ करवाया. वह अतिरिक्त शब्द न बोलता है न लिखता है- वह लिखता है तो किताब , चलता है तो यात्रा- संकल्प-जुलुस , बैठ जाये तो सभा-गोष्ठी और बोल दे तो वचन – वक्तब्य – वार्ता - भाषण.
उसने तुम्हारा ( महामना ने कभी तुम कभी आप कहा था ) परिचय करवाया है . मैं तो पूर्णतः आस्वस्त हूँ. क्या चाहते हो !
जी हाँ , महामना यह पूछने के अधिकारी थे
बस यही की आप की याद परेशान न करे , मैं उत्तेजित था
महामना पर्याप्त वय के थे उस समय.शायद तात्कालिक अस्वस्थता भी थी . महामना गाड़ी से उतर ही गये. चारों ओर उन्हें विद् करने व्लों की भीड़.
महामन् ने आत्मीय सघन निर्लज्जता से मेरा भरी भीड़ के सामने आलिंगन किया. उनकी बाहों मै उस अवस्था में अस्वस्थता की हालत में रात पौने बारह बजे उतनी शक्ति थी .
मेरे - उनके मेजबान के अतिरिक्त सभी अवाक्
फिर गाड़ी में बैठने के क्रम में फिर दुबारा बुलाया - यदि लिखे पर ही विश्वास करते हो तो जो कुछ तुमसे आज कहा गया है वह सब जल्द ही पुस्तकाकार छप कर सार्वजनिक होगा , सब लोग पढ़ सकेंगें , सारी अच्छी लाइब्रेरी में मिलेगी - तब पढ़ कर विश्वास कर लेना.
महामना ने कहा- तुम पुस्तकों और आज तक कहा जो जा चुका है उसके आगे सोचौ , उस पर विश्वास करो, मैं सदैव साथ हूँ
अविश्वसनीय, अविश्वसनीय, अविश्वसनीय
मेरे एक परम श्रद्धेय थे , अभी सशरीर हैं, जन्मजात महान थे- पूरा लम्बा जीवन सार्वजनिक सम्मानों ,स्विकृतियों , सामाजिक , आध्यात्मिक , राजनैतिक , शेक्षणिक महामन् के रूप में आज भी स्वीकृत है. भारतीय परिपेक्ष्य में लगभग सभी पदों के लिये वे समर्थ संभावित ब्यक्तित्व थे. मेरे अभिन्न ने मुझे उनसे परिचय करवाया. लगभग चार-पाँच घन्टे मैं उनकी छाया की तरह एक जलसे में उनके व्यक्तिगत साहचर्य में था . जिस तरह मेरा परिचय करवा दिया गया था उसके बाद किसी अन्य आश्वस्ति की आवश्यकता न थी . चन्द मिनटों में मैं उनका अपना समान हो गया . भीड़ थी . बड़े बड़े लोग एक एक कर या समुह में आ रहे थे , उनसे मिल रहे थे ,अभिवादन करने और महामना द्वारा अभिवादन वापसी का क्रम चल रहा था. बीच बीच में महामना अत्यन्त आश्चर्य -जनक ढंग से अत्यन्त गंभीर चिन्तन , विवेचना , मनन की मनः स्थिति में भी लगातार रहते थे. सार्वजनिक जीवन का सांगो-पांग पालन करते हुए भी वे लगातार तीब्र चीन्तन -मनन-अध्ययन में थे , यह मैंने स्वयं देखा -समझा, साक्षात्.
इसी क्रम में थोड़ा सा समय मिला .
उन्होंने कुछ गूढ़ रहस्यमय स्वानुभूति तथा उनका अन्वय-अर्थ-समाधान मुझे कृपा -पूर्वक बताया.मेरा दुःसाहस देखिये- नासमझी ही थी, जिद्दी स्वभाव तो शुरू से ही था- मैं महामना से बहस कर बैठा, असहमत हो चला.
शान्त चित्त महामना, जरा सा भी क्षोभ -विक्षोभ-खीझ बैचैनी नहीं .
शान्ति से मुझसे पूछा - तुम्हारी यह सहमति क्यों .
मैंने लगभग त्रक करते हुए कहा - आपकी बात समझ में नहीं आ रही.
पूछा महामना ने - और शैष बातें समझ में आ जाती है.
मैरा जबाब था- लगभग अहंकार के स्पष्ट पुट के साथ- सारी तो नहीं ही आती है , कुछ आती है कुछ समझने की कोशिश करता हूँ.
महामना- कैसे समझते हो
मैं - सुन , पढ़ ,जान ,समझ कर
महामना - कैसे जानते -समझते हो
मैं गर्व से - किताबें पढ़ता हूँ
महामना- किताबों में क्या होता है
मै- तथ्य
महामना - कैसे जाने की वही तथ्य है
मैं निरुत्तर
महामना- किताबों मै लिखा सब तुमने मान लिया
मैं लगभग सिर झुका चुका था
महामना- किताबों मे यदि गलत लिखा हो तो .
मैं निरुत्तर
महामना- किताबों में लिखा कभी अपने से जाँचा, परखा
महामना- या बस लिखा था सो पढ़ लिया और मान लिया
शर्म से गड़ा मैं- बस कुछ कुछ समझते हुए हिर झुकाये जा रहा हूँ
इस बीच दो चार आँसू भी आ चुके थे. भीड़ भरा माहौल था. महामना से मिलने वालों का क्रम लगातार चालू था

लगभग रात के ग्यारह बज रहे थे.
आने जाने वालों का क्रम टूट चला था
महामना लगभग पाँच घन्टे से मेरे साथ थे, आदभुत अनुभूति थी .
यह समय मेरे जीवन का कैसा समय था , नहीं कह सकता. मैं उनकी उपस्थिति मैं किस भाव रस में था, नहीं कह सकता.
परमात्मा उन्हें शतायु करे , भारत उनकी सेवा यथौचित रूप से प्राप्त करे .
लगभग साढ़े ग्यारह बजे ,लगभग मध्य रात्री, महामना ने समारोह स्थल से जाने की इच्छा ब्यक्त की,मेजबान ने अश्रुपूरित बिदाई दी. महामना गाडी पर बैठे. बाहर चारों ओर देखा . मुझे बुलाया गया. महामना भावुक हो चले .पूछे क्या चाहते हो . मैंने ईतमिनान से जबाब दिया स्व-अर्जित यश- श्रेय-वैभव- प्रेरण एवं शान्ति.
पूछा महामन् ने - और कुछ
मैंने बस कहा कभी भी आपके साथ बिताये इस समय को सार्वजनिक न करूँ, इस लोभ में न पडूँ, बस इतनाही , फिर आपसे मैं मिलने का उद्यम न करूँ, बस इतना ही. आपके मेजबान का मेरे उपर एसा ही भरोषा है.
महामना ने कहा - मेरा भी (______) उसपर एसा ही भरोषा है, मैं समझ गया उसी वक्त जब ( ) ने तुम्हारा परिचय उन शब्दों के साथ करवाया. वह अतिरिक्त शब्द न बोलता है न लिखता है- वह लिखता है तो किताब , चलता है तो यात्रा- संकल्प-जुलुस , बैठ जाये तो सभा-गोष्ठी और बोल दे तो वचन – वक्तब्य – वार्ता - भाषण.
उसने तुम्हारा ( महामना ने कभी तुम कभी आप कहा था ) परिचय करवाया है . मैं तो पूर्णतः आस्वस्त हूँ. क्या चाहते हो !
जी हाँ , महामना यह पूछने के अधिकारी थे
बस यही की आप की याद परेशान न करे , मैं उत्तेजित था
महामना पर्याप्त वय के थे उस समय.शायद तात्कालिक अस्वस्थता भी थी . महामना गाड़ी से उतर ही गये. चारों ओर उन्हें विद् करने व्लों की भीड़.
महामन् ने आत्मीय सघन निर्लज्जता से मेरा भरी भीड़ के सामने आलिंगन किया. उनकी बाहों मै उस अवस्था में अस्वस्थता की हालत में रात पौने बारह बजे उतनी शक्ति थी .
मेरे - उनके मेजबान के अतिरिक्त सभी अवाक्
फिर गाड़ी में बैठने के क्रम में फिर दुबारा बुलाया - यदि लिखे पर ही विश्वास करते हो तो जो कुछ तुमसे आज कह गया है वह सब जल्द ही पुस्तकाकार छप कर सार्वजनिक होगा , सब लोग पढ़ सकेंगें , सारी अच्छी लाइब्रेरी में मिलेगी - तब पढ़ कर विश्वास कर लेना.
महामना ने कहा- तुम पुस्तकों और आज तक कहा जो जा चुका है उसके आगे सोचौ , उस पर विश्वास करो, मैं सदैव साथ हूँ

आविश्वसनीय, आविआविश्वसनीय, आविश्वसनीय, आविश्वसनीय, आविश्वसनीय, श्वसनीय, आविश्वसनीय, आविश्वसनीय, आविश्वसनीय, आविश्वसनीय, आविश्वसनीय, आविश्वसनीय, आविश्वसनीय, आविश्वसनीय
आविश्वसनीय

आविश्वसनीय

आविश्वसनीय


Wednesday, 9 September 2015

Whether law is only a profession, either this side of the bench or that side of the bench ?
What is the value of law either as a means or end ?
Whether this is only of the state , for the state and by the state ?
Whether law is only to govern the subjects , people ?
Whether law is super knowledge branch only available with a few thousand ?
Whether law is so complicated that students of class six , seven , eight cannot even think or understand ? Though they can understand the whole globe, science , history, poetry and poetic mysticism , religion and religious interplay but not the law of land through which they are being ruled every moment every where ?


Mulayam won , SP lost in up.
Lalu will win and his party and alliance will lose .

Monday, 7 September 2015

बाद में मुझे आभाष हुआ कि प्रत्येक जीव के जीवन में एक गर्भ काल आता है.
जब भी मैं अपने आप को किसी बन्धन से बान्धने की कोशिश करत् था तो अनेकानेक परस्पर विरोधी  शक्तियाँ अत्यन्त तीब्र हो मेरा और मेरे संकल्प का विरोध करने लगती थी .
इसी विरोध के कारण मैंने विरोधी शक्तियों से एक साथ लड़ना सीखा. मुझे स्पष्ट समझ में आया कि यदि मैं बन्धनों से भागूँगा , यदि मैं नंगा हो कर बन्धनों से मुक्त हो ही जाउँगा तो अन्ततः शर्म मुझे ही आयेगी .
मैं किन शब्दों में अपनी माँ के उन निर्देशों का उल्लेख करूँ समझ मेम नहीं आता.
पर हाँ, ुन्होंने बड़े स्पष्ट रूप से बताया था कि जब कभी अपने को बाँधोगे, बाँधे जाओगे ,या ट्रेनिंग के लिये जाओगे तो थोड़ी बहुत असुविधा तो होगी ही .
जिसने दाँत पर दाँत चढ़ा ,दम बाँध, मुट्ठी बन्द , साँस खीँच ,उस असुविधा को बरदास्त कर लिया , स्वीकार कर लिया, वह तो बाद में कंचन हो गया और जो उस ट्रेनिंग काल की असुविधा से घबड़ा गया, भाग गया या जिसने ट्रेनिंग बीछ में छोड़ दी , वह बस गया काम से .उसका जीवन बड़ा दुखःद बीतता है.
इसी प्रकार जीवन में सफल होने के लिये सफल होने की इच्छा का होना जरूरी है . सफल होने के लिये सब कुछ कर गुजरने का संकल्प आवश्यक है .हफल होने की तीब्र इच्छा के प्रभाव में ही कोई ब्यक्ति सफलता -पथ के स्रे कष्ट झेलता है.
गर्भ धारण करने की , मातृत्व कीउत्कट अभिलाषा- बैचैनी- आवेग ही मातृत्व की इच्छा लिये जीव को असामान्य प्रक्रिया से गुजरने को विवश ही नहीं करती , सफलता पूर्वक उस प्रक्रिया से गुजर जाने, बर्दास्त करने का  बल बुद्धि और पराक्रम भी देती है .

Sunday, 6 September 2015

धन्य हो मेरी माँ ! वे मुझे एक नौकर के साथ जबरदस्ती चीखते -चिल्लाते-अनवरत- रोते- गालियाँ बकते स्थिति में भी स्कूल जाने को बाध्य करती थी. मेरी माँ भी साथ हुआ करती थी.  मैं सड़कों पर  हाथ -पैर मारता, चीखता , नौकर के कन्धे पर लगभग लाद कर स्कूल लै जाया जाता, नौकर को मारता , शायद माँ को भि ग्ली बकता- मारता. याद पड़ता है कि मैं कभी कभी रामशरण नाम के उस घरेलू नौकर को दाँत भी काट लेता था. कलकत्ते की ब्यस्त सड़कों पर चिल्लाता मैं और मेरा हाथ पकडे़े या कन्धे पर बैठाये या लगभग दबाये हुै रामशरण और पीछे पीछे मेरी माँ. क्या दृश्य रहा होगा.
मुझे याद  पड़ता है, माँ को राह चलते लोग सलाह देते थे कि इस तरह स्कूल जबरदस्ती क्यूँ भेजती हैं.
माँ का उत्तर होता था- यह स्कूल नहीं जाने के लिये ही तो यह सब नाटक ड्रामा कर रहा है, यदि इसे पता चल गया कि इस तरह उछल कूद करने से यह स्कूल जाने से बच जायेगा तब तो यह रोज यही ड्रामा करेगा. तब तो यही इसकी आदत ही बन जायेगी . वह आगे कहती , पर यदि इसे दो चार बार समझ में आ जायेगा कि किसी भी किमत पर इसे स्कूल जाना ही पड्देगा और यह ड्रामा काम नहीं ही आयेगा, तो यह खुद ब खुद आपने को बदल लेगा.
मुझे यह दृश्य आज भी याद है - हू बहू - कलकत्ता के मछुआ बाजार- रविन्द्र सरणी, फूल-कटरा- मारवाड़ी रिलिफ सौसाईटी, बौल की आस्पताल जहाँ शायद मेरा जन्म हुआ था और डीडू माहेश्वरी स्कूल .
बड़े होने के बाद मेरी माँ के मुँह से यह प्रकरण सैंकड़ो बार सुन चुका हूँ.
माँ इस दृश्य को मेरी पत्नी , बच्चों , मेरे जूनीयर , मेरे सिनीयर  सभी को कई बार बता चूकी है . सेवा काल में भी माँ ने यह प्ररण बार बार मेरे छोटे -बड़े सभि को कई बार बताया.
अरे हा़ , याद आया  , एक बार मैंने सकूल जाते वक्त  माँ को धमकी दी कि मुझे स्कूल मत भेजो , नहीं तो मैं पैन्ट खोल दूंगा, पर माँ का दो टूक जबाब था ,तब भी तुम्हें स्कूल तो जाना ही पड़ेगा , शर्म आवेगी तो तुमको.
यह मेरे जीवन का एक ऐसा अनुभव है जिसे मैं कभी भुला नहीं पाया.
सच है , हमारा शरीर , हमारी बुद्धि विद्रोह करती है क्यों कि शरीर औेर बुद्धि की स्वतन्त्रता का अपहरण होता प्रतीत होता है .
शरीर औेर बुद्धि  तो परम् स्वतन्त्र रहना चाहते हैं ,जब कभी इन्हें किसी विशीष्ट मार्ग पर चलाने का य् किसी विशेष साँचें में ढालने का प्रयास होता है, और इन पर नियंत्रण लगाया जाना अभीष्ट होता है शरीर तो शरीर , सारी मन -बुद्धि, ये सभि मिल कर एक साथ उस नियंत्रण का विरोध करते हैं .
यह बात मैं अधिक शिद्दत से महसूस करत् हूँ.
बाद के जीवन में मैंने अपने आप को बहुत से बन्धनों में बाँधा. बहुत से बंधन पूर्णतः स्वैच्छिक थे. आप चाहे तो उसको संयम का नाम दे सकते हैं. कुछ बन्धन परिस्थितिजन्य भी थे. कुछ  बन्धन आरोपित भी थे.अनैच्छिक दूसरौं द्वारा लादे गये थे.
पर मैंने पाया कि जब भि अपने आप को बाँधने का ,निर्देशित करने का , संयमित करने का प्रयास भी किया तो कम से कम एक बार तो किसी शक्ति ने उसका विरोध किया ही - कभी वह शक्ति आन्तरिक तो  कभी वह वाह्य होती है कभी वह सुक्ष्म, कभी तीब्र , कभी स्पष्ट , कई बार अस्पष्ट ,कभी प्रत्यक्ष, कभी परोक्ष.
चूँकि माँ ने बचपन में ही बता डाला था कि यह सब बन्धन से बचने का बहाना मात्र है , एक बार इस बहाने को मुँह लगाया  नहीं कि यह परिक जायेगा, बार बार आने वाला अप्रिय अनचाहा मेहमान बन जायेगा.
यह स्वाभाविक विरोध नहीं है, बन्धन से बचने का प्रयास भर है.

















Saturday, 5 September 2015



_()_ ,
The youngest teaches me the most
that too the newest , , the extra-fresh , the lesson of hope ,
Let me leave like a true learner.
With regards to all those who allowed me to learn through them ...
See More


चिन्तित विचारों को , मनन कर लिये गये साक्ष्यों को कल्पित धारणाओं को,परिश्रम की मंजूषा में सुरक्षित रखने से ही यश, श्रेय , वैभव ,प्रेरण् ,एवं शान्ति मिलती है .
परिश्रम की मंजूषा में यदि विचारों को सुरक्षित-संरक्षित- परिचारित नहीं किया गया तो वे कितने ही सुन्दर क्यों न हो , कितने ही अनमोल क्यौं न हौ , लुप्त हो जाते हैं
सुचिन्तित -सुविचारित परिश्रम ही परम साधन है और अन्तिम साध्य है

Friday, 4 September 2015

शस्य श्यामला धरती , स्वच्छ धूप हवा का वर्णन कर देने से गाँवों की पेय जल समस्या का निदान तौ नहीं हौ जायेगा, गड्ढों में से पशुओं की तरह मुँह लगा कर पानी पीते लोगों को देख कर भी क्या मैं उस दृश्य को भूल जाऊँ
भेड़ों के समुह के बीच बंशी बजाते अपने आप में सिमट कर जी भर रहे गड़ेरिये के भेड़ों के प्रति प्रेम को कितने ही प्रशंसनीय भाव से मैं लिख डालूँ, पर क्या उससे उस गड़ेरियै की पीढ़ी दर पीढ़ी की अभाव ग्रस्त जिन्दगी बदल तो नहीं जायेगी.
क्या गड़ेरिये की सरलता और सहजता वास्तविकता वास्तविक है .
याद तो आयेगा तुम्हे भी वह दिन
जब एक सपने से तुम खेल गये थे
सपनों का आना, उनको यूँ पालना
पाले हुए सपनों संग तुम खेल गये थे
खेल में भरमाया था नन्हे सपनों को
अपनों के सपनों संग भी खेल गये थे
बच्चे सपने, कच्चे सपने ,सच्चे सपने
खेल गये जिन सपनों से,वे तो अपने थे
भूल गये अपनों को भी, वहशी बने जब
अपने ही सपनों संग यूँ खेल खेल गये थे
Your real courageous intelligent right thinking  well wisher will come forward with unpleasant truth to lead you on the right path .


स्वाद कैसा भी हो , प्रभाव-परिणाम हितकारी- लाभकारी - इष्टकारी होना ही चाहिये.
To be remembered as a Judge one need not be the Chief Justice of India
Even unknown endorsed, know not why. All and everything abstract , still they are here around me , know not why.
Any way thanks to those who are Still around me and not walked away winkigly or ignorangly or abruptly .

Wednesday, 2 September 2015



किशनगंज: जिला सत्र न्यायाधीश रमेश कुमार रतेरिया ने बलात्कार के मामले मे अभियुक्त एखलाक को सात साल की सजा सुनाई ।कोचाधामन मे हुआ था बलात्कार ।