Monday, 5 January 2015

क्या हिंदी भाषी इ-सूचना-साहित्य भी इतिहास के पुराने स्वरूप में ही अपने को अधिक सुरक्षित पाता है .
क्या परम्परागत मुल्यांकन से अलग अन्य किसी मूल्यांकन से अस्तित्व सचमुच खतरे में पड़ ही जायेगा .
क्या अभी भी ई-सूचना साहित्य पुराने ढर्रे की कविताओं , आख्यानों ,पौराणिक कथानकों ,पुरानी दार्शनिक मान्यताओं के इर्द-गिर्द ही घुमते नहीं रहता है .
साहित्य सामग्री भी या तो पुराने ढर्रे की हैया अन्य भाषाओँ से अनुदित या प्राप्त की हुई सी ही है .
हिंदी में या तो राजनैतिक विश्लेषण या कुछ जातीय-ब्यवस्था के संबंध में सामग्री ही क्यों मिलती है .
गंभीर विधिक ,वैज्ञानिक ,अर्थशास्त्रीय ,गणितीय विषयों पर सामग्री कम ही मिलती है , मिलती भी है तो उसे शेयर नहीं किया जाता ,उसे इ-माध्यमों से कम प्रचार प्रसार मिल रहा है .
फलस्वरूप गम्भीर प्रकृति के इ-पाठक अंग्रेजी इ-सूचना सामग्री की तरफ चले जाते हैं और उनका इस क्षेत्र के लिये जो भी समय होता है वह अंग्रेजी सामग्री में ही लग जा रहा है .

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