भारत औए भारतीय मूल रूप से समन्वयवादी है .यहाँ सभी प्रकार के अस्तित्व को सहर्ष स्वीकार किया जाता है .अनंत विचार यहाँ एक साथ रमण करते हैं .यहाँ विचारों में नीरसता नहीं ,यहाँ विचारों को समरूप या एकरूप होने के विवश नहीं किया जाता .यहाँ व्यक्ति या विचार किसी एक ढांचे में ढलने को विवश नहीं हैं .यहाँ अनंत व्यक्तिगत स्वतंत्रता है .सच भारत टुन्ड्रा का कोणधारी वन नहीं है .भारत भूमि आर्क्टिक या अटलांटिक का अनंत सफेद बर्फ भी नहीं है ,भारत के गांवों को देखकरभारत की विविधता दिख तो सकेगी पर समझ में नहीं आती . भारतीय गांवों की यही विविधता अब भारतीय शहरों में भी सीखती है .कभी यह विविधता कतिपय दुर्बलताओं का कारण दिखती है तो अंततः यही विविधता और यही चारित्रिक विशेषता भारत की अनंत सफल यात्रा का मूल मन्त्र प्रतीत होती है .
भारतीय परिवेश में आज भी भावनाएं सर्वाधिक महत्त्व रखती है .कहिये तो आम भारतीय के हाथ ,ह्रदय तथा मस्तिष्क पर सदैव भावनाएं भारी होती है .
भारतीय भावनाओं के बिना जी ही नहीं सकता .नितांत देहाती , अनपढ़ , गंवार व्यक्ति को भी छेड़ कर देखिये .उसके अन्दर आपको एक दार्शनिकता दिखेगी .उसके अन्दर किसी अज्ञात के प्रति आदर तथा भय दिखेगा .
यही उसे आलसी , कायर एवं भाग्यवादी बनाता है तो यही उसे लम्बी यात्राओं के लिये लम्बी यात्राओं के लिये बल देती है .सच तो यह है की छोटी यात्राओं की शैली बड़ी यात्राओं की शैली से निश्चित रूप से भिन्न होती है .दो चार पञ्च सौ साल साल जीवित रहने की शैली हजारों साल एक साथ जीवित रहने की शैली से भिन्न होगी है ही .जिस तकनीक से सब्जियाँ उगाई जा सकती है उस तरह आम ,इमली ,बड ,प्र्र्पल ,महोगनी ,आबनूस सागवान नहीं लगाये जा सकते .
१०० मीटर रेस की दौड़ की तकनीक एवं मेराथन दौर की तकनीक अलग अलग होती है .
शायद यही अंतर है हमारे चिंतन में और पाश्चात्य चिंतन में .
हम कभी आतुर नहीं हुए .
यद्यपि ये सकारात्मक भाव हैं पर इनमे संसोधन की आवश्यकता तो है ही .
ऐसा लगता है हमलोगों ने सदियों से आत्म संसोधन , आत्मचिंतन करना बंद कर दिया है .हम चिंतन तो करते हैं पर उसे कड़ियों में जोड़ते नहीं .
यदि हम जोड़ते हैं तो भी उसमे तारतम्य , एकरूपता ,तथा कर्मबंधन नही होता .
एकबात और ,अधिकांश समय हमारा सम्पूर्ण चिंतन नितांत व्यक्तिगत ,वैयत्तिक होता है . यह सामूहिक या सामाजिक नहीं होता .सामाजिक चिंतन भीसोचते नहीं .. व्यक्तिगत स्तर पर आ जाता है .हम व्यक्ति के लिये समाज किउपेक्षा करते समय चिंतित नहीं होते .लगता है हमारे चिंतन की दिशा और दशा बदल गई है . हम क्षुद्र प्रकृति के तात्कालिक चिंतन में लग गये हैं .हम अपनर चिंतन की एक एक िनत िनत को संभाल कर नहीं रख पाते .हमारा चिंतन भावनाओं के आंधी तूफ़ान या बरसात में बह जाता है
भारतीय परिवेश में आज भी भावनाएं सर्वाधिक महत्त्व रखती है .कहिये तो आम भारतीय के हाथ ,ह्रदय तथा मस्तिष्क पर सदैव भावनाएं भारी होती है .
भारतीय भावनाओं के बिना जी ही नहीं सकता .नितांत देहाती , अनपढ़ , गंवार व्यक्ति को भी छेड़ कर देखिये .उसके अन्दर आपको एक दार्शनिकता दिखेगी .उसके अन्दर किसी अज्ञात के प्रति आदर तथा भय दिखेगा .
यही उसे आलसी , कायर एवं भाग्यवादी बनाता है तो यही उसे लम्बी यात्राओं के लिये लम्बी यात्राओं के लिये बल देती है .सच तो यह है की छोटी यात्राओं की शैली बड़ी यात्राओं की शैली से निश्चित रूप से भिन्न होती है .दो चार पञ्च सौ साल साल जीवित रहने की शैली हजारों साल एक साथ जीवित रहने की शैली से भिन्न होगी है ही .जिस तकनीक से सब्जियाँ उगाई जा सकती है उस तरह आम ,इमली ,बड ,प्र्र्पल ,महोगनी ,आबनूस सागवान नहीं लगाये जा सकते .
१०० मीटर रेस की दौड़ की तकनीक एवं मेराथन दौर की तकनीक अलग अलग होती है .
शायद यही अंतर है हमारे चिंतन में और पाश्चात्य चिंतन में .
हम कभी आतुर नहीं हुए .
यद्यपि ये सकारात्मक भाव हैं पर इनमे संसोधन की आवश्यकता तो है ही .
ऐसा लगता है हमलोगों ने सदियों से आत्म संसोधन , आत्मचिंतन करना बंद कर दिया है .हम चिंतन तो करते हैं पर उसे कड़ियों में जोड़ते नहीं .
यदि हम जोड़ते हैं तो भी उसमे तारतम्य , एकरूपता ,तथा कर्मबंधन नही होता .
एकबात और ,अधिकांश समय हमारा सम्पूर्ण चिंतन नितांत व्यक्तिगत ,वैयत्तिक होता है . यह सामूहिक या सामाजिक नहीं होता .सामाजिक चिंतन भीसोचते नहीं .. व्यक्तिगत स्तर पर आ जाता है .हम व्यक्ति के लिये समाज किउपेक्षा करते समय चिंतित नहीं होते .लगता है हमारे चिंतन की दिशा और दशा बदल गई है . हम क्षुद्र प्रकृति के तात्कालिक चिंतन में लग गये हैं .हम अपनर चिंतन की एक एक िनत िनत को संभाल कर नहीं रख पाते .हमारा चिंतन भावनाओं के आंधी तूफ़ान या बरसात में बह जाता है
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