सन 1972 के बाद मैने स्वयं को कितनी बार तरह तरह के टेस्ट से गुजारा है । कभी अपनी बौद्धिक परीक्षा ली है तो कभी शारीरिक ,कभी नैतिक तो कभी आध्यात्मिक । मैने स्वयं को पाप और पुण्य के द्वंद्व के बीच से कई बार गुजारा है । इस प्रक्रिया में मैं लगभग सभी प्रकार के पाप के करीब गया हूँ , कभी कभी तो बहुत करीब । पर शायद दैविक कृपा ही रही होगी की पाप के ताप से पूरी तरह से पीड़ित होने के पहले ही मैं किसी प्रकार बच निकला हूँ । वैसे जूआ ,नशा और वैश्या -गमन ये तीन पाप मेरे लिये आश्चर्य जनक रूप से विकर्षण के विंदु थे ।
मैं कभी भी जूए के प्रति आकर्षित नहीं रह पाया इसका कारण शायद मेरा लोभ- संग्रह के प्रति वितृष्णा रही ।मैने कभी भी लाटरी की कोई छोटी से छोटी टिकट नहीं खरीदी । सट्टे -फाटके , रेस कोर्स -शेयर बाजार , तेजी-मंदी ,नफा -नुकसान , धन -पैसा , यह सब मुझे कभी आकर्षित नहीं कर सके ।
जीवन के एक चरण में महीने में दो चार सिगरेट , ज़र्दा वाला पान दिन भर में एक दो , कभी -कभी पान मसाला-गुटखा , दो चार साल के अंतराल पर शराब के गिलास को मुह लगा भर देना -स्वाद या सुगंध ले भर लेना ,कभी कभार बचपन की गलतियाँ ,बचपन की गलत किताबें ,कुछ बचपन की तस्वीरें , कुछ बचपन के मित्रों के साथ बचपना - बस कुल मिला कर मेरे पास पाप का यही अनुभव है । प्रत्येक पाप यात्रा में मैं उत्सुकता से शुरुआत में रहता तो था पर जब यह यात्रा आगे बढ़ती थी तो मैं बीच में ही स्वयं पर ब्रेक लगा डालता था । लोभ ,लालच की यात्रा तो मुझे कभी किसी प्रकार भी नहीं भाई । संतोष मेरी पूंजी बना रहा । उसी प्रकार पर स्त्री शरीर मुझे कभी आकर्षित नहीं कर सका । काम -विचार अथवा काम -विमर्श मेरा क्षेत्र नहीं । लोभ मुझे बूरा लगता है । मेरे ब्रेक ,भीषण आवेग के बीच भी अपने आप को बीच में ही रोक लेना मेरे लिए सदैव सहज था ,मेरे मित्र , रिश्तेदार ,सहकर्मी ,जाननेवाले इसे आश्चर्यजनक मानते -जानते थे ।
मैं कभी भी जूए के प्रति आकर्षित नहीं रह पाया इसका कारण शायद मेरा लोभ- संग्रह के प्रति वितृष्णा रही ।मैने कभी भी लाटरी की कोई छोटी से छोटी टिकट नहीं खरीदी । सट्टे -फाटके , रेस कोर्स -शेयर बाजार , तेजी-मंदी ,नफा -नुकसान , धन -पैसा , यह सब मुझे कभी आकर्षित नहीं कर सके ।
जीवन के एक चरण में महीने में दो चार सिगरेट , ज़र्दा वाला पान दिन भर में एक दो , कभी -कभी पान मसाला-गुटखा , दो चार साल के अंतराल पर शराब के गिलास को मुह लगा भर देना -स्वाद या सुगंध ले भर लेना ,कभी कभार बचपन की गलतियाँ ,बचपन की गलत किताबें ,कुछ बचपन की तस्वीरें , कुछ बचपन के मित्रों के साथ बचपना - बस कुल मिला कर मेरे पास पाप का यही अनुभव है । प्रत्येक पाप यात्रा में मैं उत्सुकता से शुरुआत में रहता तो था पर जब यह यात्रा आगे बढ़ती थी तो मैं बीच में ही स्वयं पर ब्रेक लगा डालता था । लोभ ,लालच की यात्रा तो मुझे कभी किसी प्रकार भी नहीं भाई । संतोष मेरी पूंजी बना रहा । उसी प्रकार पर स्त्री शरीर मुझे कभी आकर्षित नहीं कर सका । काम -विचार अथवा काम -विमर्श मेरा क्षेत्र नहीं । लोभ मुझे बूरा लगता है । मेरे ब्रेक ,भीषण आवेग के बीच भी अपने आप को बीच में ही रोक लेना मेरे लिए सदैव सहज था ,मेरे मित्र , रिश्तेदार ,सहकर्मी ,जाननेवाले इसे आश्चर्यजनक मानते -जानते थे ।
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