Monday, 17 March 2014

रात्रि का गहराता अंधकार कितना गहरायेगा . अन्धकार की पराकाष्ठा ही प्रातः का आह्वान है .
भाते जाना ही बरसने की ओर प्रस्थान है .
सुबह की प्रतीक्षा में रात्रि का तिसरा पहर भी प्यारा लगने लगता है .
जन्म लेने वाले शिशु की किलकारी सुनने की ललक में माँ प्रसव की सारी पीड़ा भोग ले जाती है .
पर मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ . या हुआ भी हो तो मैं उसे समझ नहीं पाया .समझाने की कोशिश आज तक कर ही रहा हूँ . शायद इसी समझ की कमी के कारण मैं अपने अनुभवों का सान्गोपांग  वर्णन नहीं कर पा रहा हूँ .  वैसे चालीस पचास साल के बीच कितने नए अनुभव आ चुके होते हैं , उन सब के साथ पूर्ण न्याय कर पाना सदैव संभव नहीं रहता .उनमे से कुछ पूर्वाग्रह बन चुके होते हैं .कुछ पूर्व की  पीढियों के पूर्वाग्रह जो पहले बीज के रूप में थे वे अंकुरित हो चुके होते हैं .बुद्धि अपना प्रपंच फैलाती है .उचित ,अनुचित ,कथ्य -अकथ्य ,नैतिक -अनैतिक ,मर्यादा आदि का ढोंग होता है .
समझ में नहीं आता भारत की एक अरब से अधिक जनता आपस में एक दुसरे से छिपाने के लिये है ही क्या .

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