Saturday, 15 March 2014

आज पता चल रहा है -कितना कठिन है बरसना  औए बरसते ही रहना ।
मैं तो जब तब ,कभी रुक रुक कर ,अभी लगातार बरसते ही रहा हूँ । अजीब सा लगता है बेवजह झमाझम बरस जाना ,बरसते रहना  ।
बरसता तो मैं था पर पिछले कुछ वर्षों में मैंने जाना की बरसना  कितना  कठिन है ।
बादल बरसते हैं । मोर नाचते हैं ।बीजलियाँ चमकने लगती हैं ।दग्ध और तप्त धरती का हृदय पटल पुलकित हो उठता है । पर बरसते बादल पर क्या बीतती होगी ,उसे कैसा  लगता होगा । बरसने क पहले बादल क्या महसूस करता होगा और बरस चुकने के बाद निचुड़ा ,सकुचाया बादल कहाँ मुह छिपा रहा होगा -ये बड़े प्रश्न हैं ।
यों तो मैं पिछले लगभग चालीस वर्षों से बरसते  रहा हूँ । पर पिछले दस - पंद्रह सालों से  खामखा कुछ अधिक ही बरसा हूँ ।  वैसे सही बताऊँ तो कई बार ऐसे भी समय आए जब मैं चाह कर भी नहीं बरस पाया ।
मैं बड़ा बेबाक बारसा करता था , इतना बेबाक कि कई बार मैं स्वयं भी अपने बरसने को लेकर अचंभित रह जाता था । जब जहां मर्जी हुई बरस गया । कभी मैंने इंतजार नहीं किया किसी  न्योते का । मैंने बरसने के पहले अभिवादन कराते किसानों की , बीजों की , उत्सुक धरती की ,प्यासे कंठ की - प्रतीक्षा नहीं की ।मैं तो अनायास बरसता रहता था । सच तो यह है कि मैंने बरसने के पहले पीने के पानी की खोज में जंगलों में इधर-उधर डोलते हिरणों की बेचैनी  भी नहीं देखी थी ।बस बरसना है ; और लो- मैं  बरस गया ।
मैंने तो बरसने के पहले यह भी नहीं सोचा कि किस प्रकार इसी धरती के जलाशयों से ,नदियों से , पत्ती -पत्ती के वाष्प से ,समुद्र से मैंने अपने आप में पानी भरा था । कतरा दर कतरा , बूंद दर बूंद ,अणु दर अणु , परमाणु  दर परमाणु ,विपरमाणु दर विपरमाणु , अत्यणु दर अत्यणु  जल मैंने इसी धरा से प्राप्त किया  है ।  यह क्रम चलता तो रहता ही है न , चल ही राहा न था - पर कभी जल ग्रहण की इस प्रक्रिया को देख नहीं पाया । सोच नहीं पाया ।
मैं तो बस बरसते रहा ,बरसते रहा - कब पानी  आया ,कहाँ से क्यूँ आया ,कितना आया ,न कभी सोचा  न सोचने का समय - बिना सुस्ताये लगातार बरसने का जुनून ।
पर आज न जाने क्यों बरसने के पहले की सारी कवायद आँखों के सामने साक्षात होती जा रही है । बरसने क्के बाद की सारी थकान भी सामने हो रही है । बरसने के आगे पीछे का संकोच ,डर , सारा ,सब कुछ मूर्त होते जा रहा है । इसके पहले ऐसा कभी नहीं हुआ ।
न मैं कभी बादल बनते हुए डरा । न मैं बादल बन  कर डरा । न बरसते डरा । मैं तो आधियों की गोद में खेलता कूदता  ही रहा । आंधीयों के थपेड़ों को ही आंधीयों का वरदान मानता रहा ।कड़कती बिजली , कर्कश कड़कड़ाहट  मुझे कभी बेचैन नहीं करती थी ,आज भी नहीं ।    क्षण भर के लिये  जो बिजली चमकी उसी चमक में घबराये बिना अपना आगे का रास्ता कुछ दूर तक तो देख ही लेता हूँ । समुद्र का अथाह जल , नदियों का प्रबल वेग , जल प्रपातों  की तिब्रता , तीक्ष्णता , सैलाबों की ब्यापकता - ये सब मुझे अपने जीवन का अंग रंग ,सौंदर्य -सुहाग लगता था , आज भी वही लगता है । बिना जर्क -जंप ,जोल्ट , कर्भ , उठा -पटक  के जीवन कैसा ।

No comments:

Post a Comment