यूं तो मुझे राजनीति से कोई चिढ़ नहीं है ,पर समझ में नहीं आता कि राजनीति शास्त्र को समाजशास्त्र का ही एक अंग कैसे माना जाता है ।
राजनीतिशास्त्र समाजशास्त्र का वह हिस्सा है जो अर्थशास्त्र तक के क्षेत्र को शक्ति अथवा शांति से नियंत्रित करने की कोशिश करता है । वैसे राजनीति और राज्यनीति दोनों भी अलग अलग चीजें है ।
राजनीति दुर्भेद्य होती है , राज्यनीति प्रकट। वैसे राज्यनीति तथा राजनीति में निकट का , करीबी संबंध होता है । राज्यनीति बहुत देर तक या बहुत लंबे समय तक जनमत अथवा सामान्य मत के विरुद्ध नहीं खड़ी रह सकती ।
राजनीति का आधिक्य त्याज्य है । सुविचारित ऊर्ध्वमुखी राजनीति में निर्माणमूलक चिंतन के रहस्य छिपे होते हैं - यही सकारात्मक राजनीति कूटनीति है ।
स्वतन्त्रता के कथित आंदोलन के अवशेषों के रूप में हमें राजनीति आवश्यक बूराई के रूप में प्राप्त हुई । स्वतन्त्रता आंदोलन तत्कालीन शासकों द्वारा स्थापित ब्यावस्था के विरुद्ध संघर्ष था । स्वतन्त्रता के बाद भी हमलोगों में से अधिसंख्य ने व्यवस्था से सहयोग करना नहीं सीखा ।
स्वतन्त्रता पूर्व व्यवस्था के व्यवस्थापक भी अपने दृष्टिकोण में बदलाव नहीं ला पाए हैं । अभी तक व्यवस्था के व्यवस्थापक स्वयं को जन से दूर अभिजात्य वर्ग स्थिति में पाते हैं । व्यवस्थपक एक अजीब प्रकार की शासक मानसिकता लिये हुए हैं । वैसे यह मानसिकता आज भी सरकारी कर्मचारियों के नीचे से लेकर उच्चतम स्तर तक बड़ी अजीब सी स्थिति में बहुतायत में मिलती है । जिम्मेवारी के बिना अधिकारों से यही स्थिति उत्पन्न होती है ।
अधिकारों के साथ जिम्मेवारी आवश्यक है । किसी व्यक्ति को यह कहने की आजादी नहीं दी जा सकती कि उसने तो प्रयास किया,सफलता नहीं मिली तो वह क्या करे । जब कोई व्यक्ति अधिकार मांगता है ,स्वेक्षा से जिम्मेवारी लेने आगे आता है ,सफलता का श्रेय लेने की मानसिकता में है तो उसे असफलता की ज़िम्मेदारी लेनी होगी और उसके फलाफल भी भोगने होंगे ।
नौकर वृत्ति इस फलाफल से भागने की वृत्ति का नाम है ।नौकर सुफल या यश तो लेने को तैयार है किन्तु असफलता की कड़ुवाहट बर्दाश्त करने के लिये तैयार नहीं । ऐसे दायित्व विहीन नौकरों से कुछ नहीं हो सकता । श्रम सदैव सफल नहीं हो सकता ।जीवन में असफलता की संभावना सदैव बनी रहती है । एक सफलता के पीछे अनेक असफलताओं के दंश को झेलना पड़ता हैं ।
असफलताओं मे मानव श्रम नष्ट होता है उसकी जिम्मेवारी कौन लेगा ।
जंगलों में भी जनवारों को अपना शिकार ढूँढने मे शिकार के पीछे घंटों परिश्रम पार्न पड़ता है । कठोर परिश्रम करने केबड़ भी शिकार हाथ नहीं आता । असफलता ही हाथ लगती है ।
राजनीतिशास्त्र समाजशास्त्र का वह हिस्सा है जो अर्थशास्त्र तक के क्षेत्र को शक्ति अथवा शांति से नियंत्रित करने की कोशिश करता है । वैसे राजनीति और राज्यनीति दोनों भी अलग अलग चीजें है ।
राजनीति दुर्भेद्य होती है , राज्यनीति प्रकट। वैसे राज्यनीति तथा राजनीति में निकट का , करीबी संबंध होता है । राज्यनीति बहुत देर तक या बहुत लंबे समय तक जनमत अथवा सामान्य मत के विरुद्ध नहीं खड़ी रह सकती ।
राजनीति का आधिक्य त्याज्य है । सुविचारित ऊर्ध्वमुखी राजनीति में निर्माणमूलक चिंतन के रहस्य छिपे होते हैं - यही सकारात्मक राजनीति कूटनीति है ।
स्वतन्त्रता के कथित आंदोलन के अवशेषों के रूप में हमें राजनीति आवश्यक बूराई के रूप में प्राप्त हुई । स्वतन्त्रता आंदोलन तत्कालीन शासकों द्वारा स्थापित ब्यावस्था के विरुद्ध संघर्ष था । स्वतन्त्रता के बाद भी हमलोगों में से अधिसंख्य ने व्यवस्था से सहयोग करना नहीं सीखा ।
स्वतन्त्रता पूर्व व्यवस्था के व्यवस्थापक भी अपने दृष्टिकोण में बदलाव नहीं ला पाए हैं । अभी तक व्यवस्था के व्यवस्थापक स्वयं को जन से दूर अभिजात्य वर्ग स्थिति में पाते हैं । व्यवस्थपक एक अजीब प्रकार की शासक मानसिकता लिये हुए हैं । वैसे यह मानसिकता आज भी सरकारी कर्मचारियों के नीचे से लेकर उच्चतम स्तर तक बड़ी अजीब सी स्थिति में बहुतायत में मिलती है । जिम्मेवारी के बिना अधिकारों से यही स्थिति उत्पन्न होती है ।
अधिकारों के साथ जिम्मेवारी आवश्यक है । किसी व्यक्ति को यह कहने की आजादी नहीं दी जा सकती कि उसने तो प्रयास किया,सफलता नहीं मिली तो वह क्या करे । जब कोई व्यक्ति अधिकार मांगता है ,स्वेक्षा से जिम्मेवारी लेने आगे आता है ,सफलता का श्रेय लेने की मानसिकता में है तो उसे असफलता की ज़िम्मेदारी लेनी होगी और उसके फलाफल भी भोगने होंगे ।
नौकर वृत्ति इस फलाफल से भागने की वृत्ति का नाम है ।नौकर सुफल या यश तो लेने को तैयार है किन्तु असफलता की कड़ुवाहट बर्दाश्त करने के लिये तैयार नहीं । ऐसे दायित्व विहीन नौकरों से कुछ नहीं हो सकता । श्रम सदैव सफल नहीं हो सकता ।जीवन में असफलता की संभावना सदैव बनी रहती है । एक सफलता के पीछे अनेक असफलताओं के दंश को झेलना पड़ता हैं ।
असफलताओं मे मानव श्रम नष्ट होता है उसकी जिम्मेवारी कौन लेगा ।
जंगलों में भी जनवारों को अपना शिकार ढूँढने मे शिकार के पीछे घंटों परिश्रम पार्न पड़ता है । कठोर परिश्रम करने केबड़ भी शिकार हाथ नहीं आता । असफलता ही हाथ लगती है ।
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