Monday, 19 August 2019

विचार विलास और प्रपंच से मुक्ति

क्या करूँ ?
एक तरफ बुद्धि, दूसरी ओर विवेक और चारों ओर से घेरे सामाजिकता, ब्यवहारिकता।
एक तरफ अनूभव और दूसरी ओर स्वयं को आपदमस्तक आमूल-चूल आपके सामने खोल डालने का संकल्प।
आप सोच, समझ सकते है ; स्वयम को निरावृत करना कैसा कठिन रहा होगा ?
कभी कभी सोचता हूँ कि दिगम्बर जैन मुनियों की दीक्षा के क्षण की अनुभूति कैसी होती होगी ?
आज यह सब लिखते हुए सोचता हूँ कि कृष्ण अर्जुन के सामने कैसे दिब्य हुए होंगे ?
ब्यक्ति जब निरावृत होता है तब दिब्य होता है।
ईश्वर जीव को निर्मल निरावृत ही भेजता है और मुक्त निरावृत ही प्राप्त करता है।
ईश्वर से मुक्त होते ही जीव पर उसका कर्मफल आ विराजता है, अपना आवरण डाल अपने आगोश में ले लेता है।
ईश्वर प्रदत्त इस दिब्य देह से उन कर्म फलों का निराकरण किया जा सकता है।
पर जन्म के बाद से ही हम और आप प्रति क्षण नये कर्म फल आवरण से अपने आप को आवेष्ठित करते रहते हैं। हमें अपने आवरणों से प्रेम होता है, ममता होती है। यह निरन्तर बढ़ते ही जाता है।इतना ही जाता है कि उन आवरणों में कोई छूट जाये तो बेचैनी होती है।
वस्तुतः आवरण हमारी बौद्धिकता या तर्क शक्ति के कारण उत्पन्न होता है।
यह जो कुछ मैं लिख रहा हूँ, आप पढ़ रहे है, वह भी एक आवरण ही है।
चिंतन, मनन,,अध्ययन, अध्यापन, विचार या विचार प्रक्रिया, ये सब वस्तुतः आवरण आवेष्टन की प्रक्रिया ही है।
जैसे एक कीड़ा अपने ही मुँह से निकाली लार से अपने ही चारों ओर एक जाल बुनते चला जाता है, कोकून बन जाता है उसी प्रकार मैं भी अपने ही विचार विलास से आवृत्त होते जाता हूँ।
उस विचार विलास से मुक्ति सहज नहीं।
मेरे लिये भी नहीं।
शरणागत हो मुक्ति की प्रार्थना है।
ॐ, शान्ति, शान्ति !!

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