Monday, 19 August 2019

हमारे गाँवों का शेष

बिहार, यूपी ही नहीं, सपूरन भारत का ग्रामीण परिवेश बड़ा ही सहज होते हुए भी आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और संरचना के हिसाब से अध्ययन की दृष्टि से विलक्षण जटिलताएं समेटे हुए है।
कश्मीर से कन्याकुमारी तक किसी भी कस्बाई शहर या सड़क के पांच सैट किलोमीटर अंदर चले जाइये तो आपको भारत के इस ग्रामीण जीवन का सहज शांत स्वरूप दिखेगा वह आश्चर्यजनक होगा। हारे-थके से परिवार, सभी के चेहरे पर लगभग एक ही प्रकार की शांति विराजमान, लगभग शांत, बुझा हुआ सा, न कोई उत्तेजना, न कोई उद्वेग, लगभग कोई शिकायत भी नहीं, । अजीब सा भाव इन लोगों के चेहरे पर होता है।
गर्म तपती रेत हो, पहाड़ी या पठारी इलाका हो, जंगल या समुद्र या नदी का इलाका हो, सूखा हो, बाढ़ हो, आंधी हो, तूफान हो, इन सबके शामे ये विवश होते हैं।
पिछले 30–40 सालों से तो ये लोग अपने ही लोगों के सामने विवश हो रहे हैं।सामान्यतः विवश होकर तो लोग विद्रोह ही न करते हैं।पर अजीब बात है - भारत के ग्रामीण परिवेश में सतह पर विवशता- अकुलाहट तो दिखती है, पर विद्रोह के अंकुरित बीज नहीं दिखते।धँसी बुझी आँख तो दिखती है पर ठोस उद्वेग नहीं दिखता।
कभी कभार यह विवशता यहाँ वहाँ छोटे मोटे विस्फोट की तरह प्रतिक्रिया करती मिल जातो है पर किसी बड़ी प्रतिक्रिया का पूर्ण अभाव होता है। समझ में नहीं आता , क्यों ?
भारतीय ग्रामीण जीवन की सतह विवशता, शोषण, अभाव, विषमता आदि का एक स्पष्ट उदाहरण है।इन सारी विशेषताओं का जो प्रभाव किसी दूसरे समाज में होता ही है वह भारतीय समाज में क्यों नहीं होता यह चिंतनीय है।
इतने भारी शोषण, निराशा, विषमता के बाद भी क्यों नहीं विद्रोह किबसी स्थिति कभी नहीं बन पाती , यह विचारणीय है।
आज नहीं, यह स्थिति तो सदियों से इसी प्रकार रही होगी।
हो सकता है कि जनसँख्या के दबाव के कारण और भूमि के सीमित होने के कारण ग्रामीण क्षेत्रों का आर्थिक समीकरण विगत सौ पचास सालों में बहुत अधिक बदल गया हो। किंतु इसके पहले भी खुशहाली तो नहीं ही रही।
मैंने ग्रामीणों से उनके पूर्वजों के बारे में पूछा।पर वे कोई कुछ खास बताने की स्थिति में नहीं है। वस्तुतः भारतीय ग्राम ब्यवस्था में सम्पन्नता का कोई दिखने, जानने योग्य इतिहास ही नहीं है। बस एक सन्तुष्ट से जीवन, एक स्वावलम्बी सा जीवन । यह एक ऐसा समाज है जिसके पास कोई योजना ही नहीं, कोई स्वप्न ही नहीं।
लगता है जबभरत के गाँव के लोग सोते है सपने भारतीय गाँवों के आस वास भी नहीं फटकते।
आखिर क्यों ?
असम से लेकर राजस्थान, बिहार, उत्तराखंड,छतीसगढ़, उड़ीसा - सारे भारत वर्ष के प्रत्येक गाँव से किशोरों के लगातार पलायन हो रहा है।
ये यूवक अपने गाँव मे ही रुक कर क्यों नहीं अपने भविष्य का कोई स्वप्न देख पाते ?
गाँव के किसी पेड़ के नीचे के स्वप्न में और कलकत्ता, दिल्ली, इंदौर, सूरत, अमरावती, राजकोट, बंगलौर या गंगटोक के फुटपाथ पर के स्वप्न में इतना अंतर होगा, मुझे तो समझ में नहीं आता।
बड़े शहर में चार -पांच-छः हजार की नौकरी, क्या यही स्वप्न था जिसके लिए किसी ट्रेन की छत पर बैठ कर वह किशोर चला गया, गाँव से निकल गया।
और फिर काम की जगह से कम के घण्टों के बाद अगले दिन फिर काम की जगह वापस लौटने के अंतराल के बीच फुटपाथ के इस कोने या उस कोने पर समय बिताता युवक।
अब तो घण्टे दो घण्टे सुस्ताने के लिये बस की पीछे वाली सीट पर टिकट ले कर बैठ जाना भी महंगा हो गया है।पन्द्रह बीस रुपये लग जाते हैं।
मैं ग्रामीण क्षेत्र के ऐसे मजदूरों को जानता हूँ, जो दिन भर में दो शिफ्ट मजदूरी करते है। पहली इस लिये की मजदूरी करेंगे, दूसरी इस लिये की अब कहाँ बैठेंगे।
इन ग्रामीण युवकों को शहरों के बड़े बड़े मार्केटिंग काम्प्लेक्स, फुटपाथ, पार्क, पुरानी गद्दी, ऑफिस, प्लेटफार्म, रेलवे के किनारे फलैक्स, बस स्टैंड्स परतमम स्थानों पर बेसुध पड़े देखा जा सकता है।
थके हारे निस्तेज हो कर जब ये शहरों के फ़ूटपथों पर सोये पड़े रहते है तो इनकी स्थिति बड़ी अजीब सी होती है।मुझे तो लगता है कि हमारे भारत का पूरा गाँव ही नँगा हो कर इन शहरों की गोद में बेशर्मी से जगह खोज रहा है।
मुझे यह अस्मिता का आत्म समर्पण प्रतीत होता है।
यह भविष्य का शील हरण है।
आत्म सम्मान युक्त राष्टीय भविष्य का निर्माण इस प्रकार पद दलित स्वतः स्खलित युवा पीढ़ी को नोच नोच कर नहीं किया जा सकता।
करोड़ों की सँख्या में इस प्रकार के स्वतः अपमानित युवकों को देख कर में ब्याकुल हो उठता हूँ।
इनके पिता ने पूरी जिंदगी क्या इसी युवा पीढ़ी के लिये लगा दी ?
फिर लगता है कि यह जो आज की गाँवों सेतूत रही युवा पीढ़ी है वह भी अगली छिन्न ब्यक्तित्व वाली पीढ़ी को ही तो जन्म देगी।फिर अगली पीढ़ी किसी दूसरे शहर में फूटपाथ तलाशती फिरेगी।
क्या गाँवों में वास्तव में कुछ भी शेष नहीं रह गया है ?
क्या फुटपाथ की यह जिंदगी, धुएँ और एसिड की यह जिंदगी गांव की जिंदगी से बेहतर है ?
इन फुटपाथ वालों की बात क्यों करते है ?
गाँव की अपनी पाँच दस बीघा जमीन बेच कर इंजीनियर का लेबल लगाये हुए युवक आखिर क्यों गांवों से हजारो किलोमीटर दूर जीवन बसर कर रहा है।
तीन कमरों का फ्लैट, आगे पीछे मिला कर सौ गज जमीन, उसमें युवक का स्कूटर, सुबह की चाय, एक कुर्सी पर वह, दूसरी पर उसकी, और एक दो चार साल का बच्चा चुइंगम खाते उछल रहा है।
यही तो इस इंजीनियर युवक की जिंदगी है। इसी फ्लैट के दो चार हजार गज दूर इसी इंजीनियर के गाँव जैसे ही एक दूसरे गाँव से इसी युवक जैसा ही कोई अपनी दस पाँच बीघा जमीन, खेत बेच कर गाँव से दूर चला गया है।
आखिर क्यों ?
फिर सोचता हूँ, जमीन तोवजयों की त्यों है। उस पर काम करने वाले हाथ बदल भर गये हैं।
हजारों प्रश्न उठते है।
जो लड़का रामू बन कर दिल्ली की शालीमार बाग में पन्द्रह करोड़ की कोठी में चौका बरतन करता है वह गुमला पहुचते ही कैसे अल्फ्रेड लकड़ा बन जाता है। आखिर क्यों।
किसी जिला स्तर की कचहरी में रेल में यात्रियों को नशा खिला कर लूटने के आरोप में बंदी ब्यक्ति येन केन प्रकारेण जेल से छूट कर अपने गाँव पहुँचते ही बाबू साहब, पण्डित जी कैसे बन जाता है ?
कभी कभी सोचता हूँ कि भारत का ग्रामीण अमूमन गाँजे, अफीम आदि की खेती नहीं करते, शायद इसी लिये।
भारत के गाँवों से धोखा दे कर बालाओं को लाया जा सकता है और उन्हें मजबूर कर कोठे पर बैठाया जा सकता है पर आज भी गाँव से एक भी युवती स्वेच्छा से इस उद्देश्य से कदम बाहर नहीं निकलेगी।
शायद इसी लिये हमारा गांव वैसा दिखता है, जैसा है।
हमारे गाँव के युवक-युवतियों को आज भीबपनर शरीर से कपड़े उतारने में झिझक होती है।
इसी लिये हमारा गाँव आज भी वैसा है जैसा दिखता है।
हमारे गाँव का किसान मिट्टी में से गेहूं, अनाज, तेलहन, दलहन उपजाता है, दाने दाने को चुन चुन ,इकट्ठा कर बोरियों में भरता रहता है, व्हबुन बोरियों में अपनी ताकत भर है विजातीय पदार्थ, बीज निकालते रहता है। वह अन्न दाता है।
अपनी ओर से वह उन बोरियों में मुट्ठी भर भी कंकड़ पत्थर नहीं मिलाता, इसी लिये वह वैसा है जैसा दिखता है।
मेरे गाँव का ग्वाला ब्लोटिंग पेपर इस्तेमाल नहीं करता, इस लिये वह वैसा है जैसा दिखता है।
मैंने गाँव के सब्जी उगाने वालों को सब्जी की कभी डेंटिंग, पेंटिंग करते नहीं देखा, शायद इस लिये मेरा गाँव उदास है।

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