Thursday, 29 August 2019
Tuesday, 27 August 2019
Wednesday, 21 August 2019
Monday, 19 August 2019
विचार विलास और प्रपंच से मुक्ति
क्या करूँ ?
एक तरफ बुद्धि, दूसरी ओर विवेक और चारों ओर से घेरे सामाजिकता, ब्यवहारिकता।
एक तरफ अनूभव और दूसरी ओर स्वयं को आपदमस्तक आमूल-चूल आपके सामने खोल डालने का संकल्प।
आप सोच, समझ सकते है ; स्वयम को निरावृत करना कैसा कठिन रहा होगा ?
कभी कभी सोचता हूँ कि दिगम्बर जैन मुनियों की दीक्षा के क्षण की अनुभूति कैसी होती होगी ?
आज यह सब लिखते हुए सोचता हूँ कि कृष्ण अर्जुन के सामने कैसे दिब्य हुए होंगे ?
ब्यक्ति जब निरावृत होता है तब दिब्य होता है।
ईश्वर जीव को निर्मल निरावृत ही भेजता है और मुक्त निरावृत ही प्राप्त करता है।
ईश्वर से मुक्त होते ही जीव पर उसका कर्मफल आ विराजता है, अपना आवरण डाल अपने आगोश में ले लेता है।
ईश्वर प्रदत्त इस दिब्य देह से उन कर्म फलों का निराकरण किया जा सकता है।
पर जन्म के बाद से ही हम और आप प्रति क्षण नये कर्म फल आवरण से अपने आप को आवेष्ठित करते रहते हैं। हमें अपने आवरणों से प्रेम होता है, ममता होती है। यह निरन्तर बढ़ते ही जाता है।इतना ही जाता है कि उन आवरणों में कोई छूट जाये तो बेचैनी होती है।
वस्तुतः आवरण हमारी बौद्धिकता या तर्क शक्ति के कारण उत्पन्न होता है।
यह जो कुछ मैं लिख रहा हूँ, आप पढ़ रहे है, वह भी एक आवरण ही है।
चिंतन, मनन,,अध्ययन, अध्यापन, विचार या विचार प्रक्रिया, ये सब वस्तुतः आवरण आवेष्टन की प्रक्रिया ही है।
जैसे एक कीड़ा अपने ही मुँह से निकाली लार से अपने ही चारों ओर एक जाल बुनते चला जाता है, कोकून बन जाता है उसी प्रकार मैं भी अपने ही विचार विलास से आवृत्त होते जाता हूँ।
उस विचार विलास से मुक्ति सहज नहीं।
मेरे लिये भी नहीं।
शरणागत हो मुक्ति की प्रार्थना है।
ॐ, शान्ति, शान्ति !!
एक तरफ बुद्धि, दूसरी ओर विवेक और चारों ओर से घेरे सामाजिकता, ब्यवहारिकता।
एक तरफ अनूभव और दूसरी ओर स्वयं को आपदमस्तक आमूल-चूल आपके सामने खोल डालने का संकल्प।
आप सोच, समझ सकते है ; स्वयम को निरावृत करना कैसा कठिन रहा होगा ?
कभी कभी सोचता हूँ कि दिगम्बर जैन मुनियों की दीक्षा के क्षण की अनुभूति कैसी होती होगी ?
आज यह सब लिखते हुए सोचता हूँ कि कृष्ण अर्जुन के सामने कैसे दिब्य हुए होंगे ?
ब्यक्ति जब निरावृत होता है तब दिब्य होता है।
ईश्वर जीव को निर्मल निरावृत ही भेजता है और मुक्त निरावृत ही प्राप्त करता है।
ईश्वर से मुक्त होते ही जीव पर उसका कर्मफल आ विराजता है, अपना आवरण डाल अपने आगोश में ले लेता है।
ईश्वर प्रदत्त इस दिब्य देह से उन कर्म फलों का निराकरण किया जा सकता है।
पर जन्म के बाद से ही हम और आप प्रति क्षण नये कर्म फल आवरण से अपने आप को आवेष्ठित करते रहते हैं। हमें अपने आवरणों से प्रेम होता है, ममता होती है। यह निरन्तर बढ़ते ही जाता है।इतना ही जाता है कि उन आवरणों में कोई छूट जाये तो बेचैनी होती है।
वस्तुतः आवरण हमारी बौद्धिकता या तर्क शक्ति के कारण उत्पन्न होता है।
यह जो कुछ मैं लिख रहा हूँ, आप पढ़ रहे है, वह भी एक आवरण ही है।
चिंतन, मनन,,अध्ययन, अध्यापन, विचार या विचार प्रक्रिया, ये सब वस्तुतः आवरण आवेष्टन की प्रक्रिया ही है।
जैसे एक कीड़ा अपने ही मुँह से निकाली लार से अपने ही चारों ओर एक जाल बुनते चला जाता है, कोकून बन जाता है उसी प्रकार मैं भी अपने ही विचार विलास से आवृत्त होते जाता हूँ।
उस विचार विलास से मुक्ति सहज नहीं।
मेरे लिये भी नहीं।
शरणागत हो मुक्ति की प्रार्थना है।
ॐ, शान्ति, शान्ति !!
खुल जाने के बाद
याद है न । श्री कृष्ण ने स्वयं को सार्वजनिक कर दिया था। कृष्ण खुल गये।
खुल जाने के बाद उनका विराट रूप अब उनका अपना नहीं रहा, सार्वजनिक हो गया।
वह रूप अब न उनका अपना, न अपने लिये, न ही अर्जुन के लिए अकेले का अनुभव रहा।
उसे संजय ने देखा। अंधे धृष्टराष्ट्र ने भी देखा था।उसके बाद अनन्त पीढ़ियों ने देखा।
स्वयं को सार्वजनिक कर देने के बाद फिर उसे ब्यक्तिगत नहीं बनाया जा सकता। वह सार्वजनिक हो सार्वजनिक ही रह जाता है।
पर दिक्कत यह है कि सार्वजनिक किये जाने लायक कुछ रहता ही नहीं, होता ही नहीं।
मेरी समझ में मनुष्य का जीवन तो संकीर्णताओं, क्षुद्रताओं, स्वार्थो, आवेगों, संवेगों, भावनाओं के क्षणिक संघर्ष का क्रम बन्धन भर है।
लगभग छिपाने, दिखाने, बताने योग्य कुछ भी है ही नहीं।
ऐसी स्थिति में स्वयं को सार्वजनिक करते समय एक दोष भाव आता जा रहा है।
केवल यही कहूँगा की जितनी भी लघुता होगी, जितनी भी लघुताएँ सम्भव है, वे सारी मुझमें होंगी।
यदि लघुता के विपरीत कुछ भी है, होगा तो वह उनका या आप लोगों का दिया ही होगा। पूर्वजों के संस्कार होंगे या ईश्वरीय कृपा। यह भी हो सकता है कि ईश्वरीय कृपा, प्रकाश का परावर्तन हो।
वैसे हजार बार भी ये मान लेने पर भी कि मैं पाप पुंज हूँ, मेरा हृदय यह मानने के लिये तैयार ही नहीं कि मैं उस परम सत्ता की कृपा से विमुख रहूँगा।
जब गिद्ध विमुख नहीं रहे, वानर सन्मुख-साथ हुए, वृक्ष, मधुकर श्रेणी, मृग सब साथ थे, समुद्र, पहाड़ सब साथ आ गये, वनस्पति और किट भृग साथ आये तो मैं क्यों निराश होऊं।
मैं स्वयं को उन्हीं के सहारे छोड़ सबके सामने अपने पापों की पोटली खोलूँगा, स्वयं को पूर्णतः सार्वजनिक करूँगा। शायद पोटली सार्वजनिक करते करते, खोलते खोलते उस प्रभु की कृपा मैं पुनः देख पाऊँ। नहीं भी देख पाऊँ तो शायद समझ पाऊँ।
यदि मैं न देख पाऊँ, न समझ पाऊँ तो शायद आप में से कोई उसे खोज, देख, समझ ले।
पर यह प्रयास मेरा। यह यात्रा मेरी। मेरे सारे अपराध मेरे।
आप में से कोई भी किसी प्रकार मेरे अपराध भाव को प्राप्त न करे।
यही प्रभु से प्रार्थना है।
ॐ शांति !
खुल जाने के बाद उनका विराट रूप अब उनका अपना नहीं रहा, सार्वजनिक हो गया।
वह रूप अब न उनका अपना, न अपने लिये, न ही अर्जुन के लिए अकेले का अनुभव रहा।
उसे संजय ने देखा। अंधे धृष्टराष्ट्र ने भी देखा था।उसके बाद अनन्त पीढ़ियों ने देखा।
स्वयं को सार्वजनिक कर देने के बाद फिर उसे ब्यक्तिगत नहीं बनाया जा सकता। वह सार्वजनिक हो सार्वजनिक ही रह जाता है।
पर दिक्कत यह है कि सार्वजनिक किये जाने लायक कुछ रहता ही नहीं, होता ही नहीं।
मेरी समझ में मनुष्य का जीवन तो संकीर्णताओं, क्षुद्रताओं, स्वार्थो, आवेगों, संवेगों, भावनाओं के क्षणिक संघर्ष का क्रम बन्धन भर है।
लगभग छिपाने, दिखाने, बताने योग्य कुछ भी है ही नहीं।
ऐसी स्थिति में स्वयं को सार्वजनिक करते समय एक दोष भाव आता जा रहा है।
केवल यही कहूँगा की जितनी भी लघुता होगी, जितनी भी लघुताएँ सम्भव है, वे सारी मुझमें होंगी।
यदि लघुता के विपरीत कुछ भी है, होगा तो वह उनका या आप लोगों का दिया ही होगा। पूर्वजों के संस्कार होंगे या ईश्वरीय कृपा। यह भी हो सकता है कि ईश्वरीय कृपा, प्रकाश का परावर्तन हो।
वैसे हजार बार भी ये मान लेने पर भी कि मैं पाप पुंज हूँ, मेरा हृदय यह मानने के लिये तैयार ही नहीं कि मैं उस परम सत्ता की कृपा से विमुख रहूँगा।
जब गिद्ध विमुख नहीं रहे, वानर सन्मुख-साथ हुए, वृक्ष, मधुकर श्रेणी, मृग सब साथ थे, समुद्र, पहाड़ सब साथ आ गये, वनस्पति और किट भृग साथ आये तो मैं क्यों निराश होऊं।
मैं स्वयं को उन्हीं के सहारे छोड़ सबके सामने अपने पापों की पोटली खोलूँगा, स्वयं को पूर्णतः सार्वजनिक करूँगा। शायद पोटली सार्वजनिक करते करते, खोलते खोलते उस प्रभु की कृपा मैं पुनः देख पाऊँ। नहीं भी देख पाऊँ तो शायद समझ पाऊँ।
यदि मैं न देख पाऊँ, न समझ पाऊँ तो शायद आप में से कोई उसे खोज, देख, समझ ले।
पर यह प्रयास मेरा। यह यात्रा मेरी। मेरे सारे अपराध मेरे।
आप में से कोई भी किसी प्रकार मेरे अपराध भाव को प्राप्त न करे।
यही प्रभु से प्रार्थना है।
ॐ शांति !
गणित तो हर जीव का नैसर्गिक दर्शन है।
जब एक बाज-गिद्ध उड़ते हुए, मछलियां तैरते हुए, चीता शिकार के लिये दौड़ते हुए अपनी बॉडी को सेट करता है, स्पीड रेगुलेट करता है और अपनी दौड़, उड़ान के कोण को शिकार के साथ एडजस्ट करता है वह आज की मिसाइल टेक्नोलॉजी से वही प्रखर है, सटीक है, अध्ययन योग्य है ।
जिस तरह एक अनपढ़ रिक्से वाला भिन्न दूरी के सवारी ले जाने के या वजन ले जाने के प्रस्ताव के बाद भार, दूरी, समय, रास्ते के उतार चढ़ाव आदि का मैट्रिक्स बना एक उत्तर तत्काल दे डालता है, वह मेथेमेटिकल दर्शन ही तय है।
एक नवजात का आवाज सुन आवाज के स्रोत के कोण की ओर गर्दन घुमाना, किसी रंगीन वस्तु की ओर आंख घुमा कोण सेट करना, क्रमशः औपचारिक गणित ज्ञान के बिना छोटे बड़े आकार का ज्ञान सब कुछ गणितीय दर्शन ही तो है।
गणितीय संख्याएं वास्तव में उसी मानवीय गणितीय दर्शन को अभिब्यक्त करने की भाषा भर ही तो है।
जब एक बाज-गिद्ध उड़ते हुए, मछलियां तैरते हुए, चीता शिकार के लिये दौड़ते हुए अपनी बॉडी को सेट करता है, स्पीड रेगुलेट करता है और अपनी दौड़, उड़ान के कोण को शिकार के साथ एडजस्ट करता है वह आज की मिसाइल टेक्नोलॉजी से वही प्रखर है, सटीक है, अध्ययन योग्य है ।
जिस तरह एक अनपढ़ रिक्से वाला भिन्न दूरी के सवारी ले जाने के या वजन ले जाने के प्रस्ताव के बाद भार, दूरी, समय, रास्ते के उतार चढ़ाव आदि का मैट्रिक्स बना एक उत्तर तत्काल दे डालता है, वह मेथेमेटिकल दर्शन ही तय है।
एक नवजात का आवाज सुन आवाज के स्रोत के कोण की ओर गर्दन घुमाना, किसी रंगीन वस्तु की ओर आंख घुमा कोण सेट करना, क्रमशः औपचारिक गणित ज्ञान के बिना छोटे बड़े आकार का ज्ञान सब कुछ गणितीय दर्शन ही तो है।
गणितीय संख्याएं वास्तव में उसी मानवीय गणितीय दर्शन को अभिब्यक्त करने की भाषा भर ही तो है।
शांति का मार्ग
हल्के होने और खुलते रहने का मार्ग ही शान्ति तक ले आया। जितना छिपाया, जितना छीपा, उतना ही अशांत हुआ।
खुलने में जितनी देरी की, शांति को ले कर संशय बना रहा।
एक झटके में जो खुला, सब कुछ सब के सामने खोल कर रख दिया, जैसे ही कुछ भी छिपा न रहा, सब कुछ बदल गया।
सब कुछ वही था।
मेरी नजर बदली और सब कुछ बदला।
बदली तो उनकी भी नजर।
पहले तो किसी ने विश्वास ही नहीं किया कि यह वास्तव में खुल ही गया, सब कुछ आम कर ही गया।
उनके मन में प्रश्न था कि यह कैसे हो सकता है कि अब इसके पास कुछ भी छिपाने लायक भी नहीं रहा !
पहले उन्हें झटका लगा।
अब तो उनकी भी निगाह बदल गयी।
नजर बदली, निगाह बदली, अर्थ और समझ, सब बदल गए।
सारा संशय साफ।
बस परमात्मा यही शक्ति देना, इसी तरह सदा खुला रहूँ, कुछ भी किसी से भी छिपा न रहे।
मैं कभी किसी को न बोलूं :-
धरमदास तोहे लाख दुहाई, सार वस्तु बाहर न जाई।
परमात्म और आत्म परिचय को सार्वजनिक हो जाने दो।
ॐ शांति
खुलने में जितनी देरी की, शांति को ले कर संशय बना रहा।
एक झटके में जो खुला, सब कुछ सब के सामने खोल कर रख दिया, जैसे ही कुछ भी छिपा न रहा, सब कुछ बदल गया।
सब कुछ वही था।
मेरी नजर बदली और सब कुछ बदला।
बदली तो उनकी भी नजर।
पहले तो किसी ने विश्वास ही नहीं किया कि यह वास्तव में खुल ही गया, सब कुछ आम कर ही गया।
उनके मन में प्रश्न था कि यह कैसे हो सकता है कि अब इसके पास कुछ भी छिपाने लायक भी नहीं रहा !
पहले उन्हें झटका लगा।
अब तो उनकी भी निगाह बदल गयी।
नजर बदली, निगाह बदली, अर्थ और समझ, सब बदल गए।
सारा संशय साफ।
बस परमात्मा यही शक्ति देना, इसी तरह सदा खुला रहूँ, कुछ भी किसी से भी छिपा न रहे।
मैं कभी किसी को न बोलूं :-
धरमदास तोहे लाख दुहाई, सार वस्तु बाहर न जाई।
परमात्म और आत्म परिचय को सार्वजनिक हो जाने दो।
ॐ शांति
मेरा इतिहास , भूगोल, हाड़ मांस का आत्म परिचय शायद किसी के काम आये
कलकत्ते से हटने के बाद बड़े ही कठिन असाध्य साधनों का संग्रह कर मेरा दाखिला एक कस्बाई कालेज में करवाया गया था.
कालिज में पढने लायक जैसा कुछ भी नहीं था-न शिक्षक - न विद्यर्थी - न सिलेबस - न पुस्तकें - न परीक्षा - न वातावरण - न मूल्य मेरे पास।
आज लगता है ;शायद कालेज जाने लायक साधन भी नहीं थे। न समय , न किताबों के लिए साधन ,न कालेज जाने लायक कपड़े .शक्ति का भी शायद आभाव था।
नानिहाली दुकान पर कपड़ा बेचा करता था।
शेष बचे समय में शायद क्षुद्र टियूशन टाईप की चीज करता था।
कभी कभार नानिहाली दुकान के काम से पटना आना जान पड़ता था। खरीदारी करने के लिये जाता था। आने जाने के खर्च के लिए गिन कर कुछ पैसे मिलते थे। कुछ तो युवा मन था। कुछ कभी कभार किताब या पत्रिका खरीदने का मन करता था। साधन थे नहीं। ऐसे में अँधेरा रहते ही साढ़े तीन या चार रूपये में पटना स्टेसन के सामने ५० अख़बार खरीदता और पौ फूटने के पहले उसे बेच लेना स्वावलम्बी होने का एक विकल्प दीखता था। यह काम मैंने दस बीस बार तो अवश्य ही किया हॉगा ।
इस दौरान भयंकर संघर्ष था ।
मैनें बी काम की परीक्षा 1976 में दी थी ।
उसी समय मैनें छिपते छिपाते कुछ किताबे खरीदी .इसी बीच मैंने रांची विश्वविद्यालय में रांची में पढने वाले कुछ विद्यार्थियों से मित्रवत स्नेह पाया।
इस दौरान अर्थशास्त्र मेरा प्रिय विषय था। पागलों की तरह उस बीस-इक्कीस वर्ष की उम्र में मैं लगा रहता था .उसी क्रम में कुछ इकोनोमिक्स के जानकारों के सम्पर्क में आया .उसी खोज में चुपके चुपके मैं दिल्ली , कलकत्ता ,बनारस , इलाहबाद भी गया .
आज लगभग पैंतालीस साल बाद मुझे उस समय का अत्यंत तेज गति से चल रहा क्रिया कलाप याद तो आता है ।
पर कोशिश करने पर भी मैं उन लोगों का चेहरा या नाम स्मरण नहीं कर पा रहा हूँ जिन्होंने उस दौर में मुझे समर्थन दिया था या निंदा की थी या जिनके संपर्क में मैं आया था ।
यह याद करने का प्रयास मै २००३,२००४ , २००५ में भी कर चूका हूँ . असफल रहा हूँ ।
कई बार बीच में भी किया -पर असफल रहा .
वस्तुतः मई - जून १९७६से लेकर सितम्बर ७७ तक का मेरा जीवन अत्यंत चंचल जीवन था।
७४-७५ के दिनों में कभी आर एस एस वालों के साथ मीटिंग या कभी कम्युनिस्टों द्वारा मुझे अपनी और खींचने का प्रयास . यु धींगा मस्ती -खींच-तान का समय था .अत्यंत अनिश्चिंतता का समय था . कुछ सूझ नही रहा था , साधन थे नहीं ,पर कुछ करने का जुनून था - पागल पन ही था ..मेरा जम कर उपहास उड़ाया गया।
सब विधि अपमानित किया गया। कुछ लोगो ने स्नेह भी दिया। खूब टंगड़ी खींची गई .
इस दौरान मैं फ्लेयर पहना करता था .कंधे तक के मेरे बाल थे. कुत्ते के कान की तरह की कलर , छींटदार शर्ट . वैसे कपड़े उस समय कस्बे में कम ही प्रचालन में थे .मैंने छाती से नीचे तक की दाढ़ी बढ़ा रखी थी ।
स्वयं को महान फिलोस्फर समझता था ।
कहीं से एक सुनहली कमानी का चश्मा भी था। कुछ भी पढने के लिए मिल जाये - पढ़ लेना- पढ़ते रहना ।किसी भी कीमत पर बड़े -यशस्वी लोगो के साथ, अधिकारियों के साथ , प्रोफेसर के साथ उठना बैठना ,उस वक्त के डी एम् , एस डी ओ , सेकेण्ड अफसर, आदि से हठ कर मैंने परिचय प्राप्त किया था ।इस क्रम में कई बार अपमानित भी हुआ।
वह दौर था जब मेरा आत्म विस्वास फौलादी हुआ करता था-बड़े सपने देखना- किसी को भी किसी भी विषय में चैलेन्ज कर देना --- पर उसका कोई आधार नहीं था- यह आज समझ में आता है - शायद यह दुस्साहस ही था --जो भी था अकारण था , अंदर से था।
इतने मूर्धन्य सपनों के साथ उस समय मैं कैसे जीवित बचा होऊंगा- मेरा मानसिक संतुलन बस ने ही संभाला था ।
कालिज में पढने लायक जैसा कुछ भी नहीं था-न शिक्षक - न विद्यर्थी - न सिलेबस - न पुस्तकें - न परीक्षा - न वातावरण - न मूल्य मेरे पास।
आज लगता है ;शायद कालेज जाने लायक साधन भी नहीं थे। न समय , न किताबों के लिए साधन ,न कालेज जाने लायक कपड़े .शक्ति का भी शायद आभाव था।
नानिहाली दुकान पर कपड़ा बेचा करता था।
शेष बचे समय में शायद क्षुद्र टियूशन टाईप की चीज करता था।
कभी कभार नानिहाली दुकान के काम से पटना आना जान पड़ता था। खरीदारी करने के लिये जाता था। आने जाने के खर्च के लिए गिन कर कुछ पैसे मिलते थे। कुछ तो युवा मन था। कुछ कभी कभार किताब या पत्रिका खरीदने का मन करता था। साधन थे नहीं। ऐसे में अँधेरा रहते ही साढ़े तीन या चार रूपये में पटना स्टेसन के सामने ५० अख़बार खरीदता और पौ फूटने के पहले उसे बेच लेना स्वावलम्बी होने का एक विकल्प दीखता था। यह काम मैंने दस बीस बार तो अवश्य ही किया हॉगा ।
इस दौरान भयंकर संघर्ष था ।
मैनें बी काम की परीक्षा 1976 में दी थी ।
उसी समय मैनें छिपते छिपाते कुछ किताबे खरीदी .इसी बीच मैंने रांची विश्वविद्यालय में रांची में पढने वाले कुछ विद्यार्थियों से मित्रवत स्नेह पाया।
इस दौरान अर्थशास्त्र मेरा प्रिय विषय था। पागलों की तरह उस बीस-इक्कीस वर्ष की उम्र में मैं लगा रहता था .उसी क्रम में कुछ इकोनोमिक्स के जानकारों के सम्पर्क में आया .उसी खोज में चुपके चुपके मैं दिल्ली , कलकत्ता ,बनारस , इलाहबाद भी गया .
आज लगभग पैंतालीस साल बाद मुझे उस समय का अत्यंत तेज गति से चल रहा क्रिया कलाप याद तो आता है ।
पर कोशिश करने पर भी मैं उन लोगों का चेहरा या नाम स्मरण नहीं कर पा रहा हूँ जिन्होंने उस दौर में मुझे समर्थन दिया था या निंदा की थी या जिनके संपर्क में मैं आया था ।
यह याद करने का प्रयास मै २००३,२००४ , २००५ में भी कर चूका हूँ . असफल रहा हूँ ।
कई बार बीच में भी किया -पर असफल रहा .
वस्तुतः मई - जून १९७६से लेकर सितम्बर ७७ तक का मेरा जीवन अत्यंत चंचल जीवन था।
७४-७५ के दिनों में कभी आर एस एस वालों के साथ मीटिंग या कभी कम्युनिस्टों द्वारा मुझे अपनी और खींचने का प्रयास . यु धींगा मस्ती -खींच-तान का समय था .अत्यंत अनिश्चिंतता का समय था . कुछ सूझ नही रहा था , साधन थे नहीं ,पर कुछ करने का जुनून था - पागल पन ही था ..मेरा जम कर उपहास उड़ाया गया।
सब विधि अपमानित किया गया। कुछ लोगो ने स्नेह भी दिया। खूब टंगड़ी खींची गई .
इस दौरान मैं फ्लेयर पहना करता था .कंधे तक के मेरे बाल थे. कुत्ते के कान की तरह की कलर , छींटदार शर्ट . वैसे कपड़े उस समय कस्बे में कम ही प्रचालन में थे .मैंने छाती से नीचे तक की दाढ़ी बढ़ा रखी थी ।
स्वयं को महान फिलोस्फर समझता था ।
कहीं से एक सुनहली कमानी का चश्मा भी था। कुछ भी पढने के लिए मिल जाये - पढ़ लेना- पढ़ते रहना ।किसी भी कीमत पर बड़े -यशस्वी लोगो के साथ, अधिकारियों के साथ , प्रोफेसर के साथ उठना बैठना ,उस वक्त के डी एम् , एस डी ओ , सेकेण्ड अफसर, आदि से हठ कर मैंने परिचय प्राप्त किया था ।इस क्रम में कई बार अपमानित भी हुआ।
वह दौर था जब मेरा आत्म विस्वास फौलादी हुआ करता था-बड़े सपने देखना- किसी को भी किसी भी विषय में चैलेन्ज कर देना --- पर उसका कोई आधार नहीं था- यह आज समझ में आता है - शायद यह दुस्साहस ही था --जो भी था अकारण था , अंदर से था।
इतने मूर्धन्य सपनों के साथ उस समय मैं कैसे जीवित बचा होऊंगा- मेरा मानसिक संतुलन बस ने ही संभाला था ।
गाँव से मेरा रिश्ता
यह पोस्ट लिखते हुए न तो मैं गांव के प्रति हिंसक हो रहा हूँ , न शहर के प्रति उदार।
शहरों में बस रहा आजकल जन मानस भी तो कभी न कभी, कहीं न कहीं, इन गाँवों से जुड़ा है। मैं और मेरी जड़ें भी किसी गाँव मे ही मिलेगी। मुझे इन गाँवों से मातृ भाव का जुड़ाव है, पितृ भाव का संकोच, भातृ भाव की प्रतियोगिता और पुत्र भाव की चिंता। अपनापन है अतः कभी कभी उबल पड़ता हूँ, फूट जाता हूँ
क्षमा करेंगें।
आज जो विकृतियाँ गाँवों में है वे ही सज संवर कर, शहरों में भी होगी ही।
में केवल इस बात से चिंतित हूँ कि भारत के गाँव, हमारे आपके गाँव मे एक प्रकार की जड़ता है, गति-शून्यता है, परिवर्तन के प्रति उदासीनता है। गांवों में जमीनी यथास्थितिवाद है।
जब हम गाँव मे होते है तो हमलोग सभ्य समाज की तुलना में बहुत धीरे धीरे चल रहे होते हैं। हम वास्तव में बहुत पीछे है, या पीछे छूट गये है या हमें पीछे छोड़ दिया गया है।
यह जानना और समझना हमारे लिए कितना भी कठिन और कष्टकारी क्यों न हो, हमे समझना ही होगा।
किसी प्राचीन ब्यवस्था के अवशेषों के नाम और हम अपना वर्तमान नष्ट नहीं कर सकते।
गौरवशाली इतिहास, यदि हो तो भी, कोई अमृत नहीं, कोई रामबाण दवा नहीं, जिसे पिला कर मर रहे वर्तमान को जिंदा रखा जा सके।
निष्प्राण हो रहे वर्तमान को वर्तमान के अपने पुरुषार्थ से ही बचाया जा सकता है।
भूत तो भूत ही रहेगा। इतिहास तो इतिहास ही रहेगा। वह वर्तमान या भविष्य नहीं हो सकता।इतिहास हर गुजर रहे पल के साथ और गहराई में चला जा रहा है।
इतिहास वर्तमान के लिये नींव भर हो सकता है, उससे आगे कुछ भी नहीं।
नींव के पत्थरों को निकाल निकाल कर दिखाने से वर्तमान का महल नहीं खड़ा किया जा सकता। खामखाह नींव खोदते रहियेगा ति वर्तमान तो हाथ से जायेगा ही, पुरानी नींव भी समाप्त हो जायेगी।
भारतीय गांवों में दादा परदादा पुरखों के जमाने की गाथाएँ वर्तमान को घुन की तरह लगी जा रही है, खाये जा रही है।इतिहास वर्तमान और साथ में भविष्य को भी बाँधे जा रहा है। इतिहास कितना भी भब्य हो वह रहेगा इतिहास ही।
मिस्र के पिरामिड हो या नालंदा के खंडहर - वे न तो वर्तमान हो सकते , न वर्तमान को गति दे सकते, वे वर्तमान के नियंता नहीं हो सकते । वे बर्तमान के लिये प्रेरणा या लक्ष्य या गंतब्य नहीं हो सकते ।
आर्यभट्ट, वराहमिहिर, चरक, सुश्रुत, गर्ग, बुद्ध, महावीर, कन्फ्यूशियस, वाल्टेयर, रूसो, , एरिस्टोटल, ह्वेनसांग, फाह्यान, इब्नबतूता, आर्कमिडीज, न्यूटन, आइंस्टाइन, कालिदास, शेक्सपियर -ये सब कितने भी महान, पूज्य क्यों न हो, वर्तमान की परिधि नहीं हो सकते।
जो समाज इन्हीं में से किसी एक को अपना केंद्र मान कर वर्तमान या भविष्य की रेखा या वृत्त खींचने की गलती करता है, वह एक सर्व कालिक भूल कर रहा है
इतिहास जे प्रति ममता त्यागना ही पड़ेगी।इतिहास त्यागने की जरूरत नहीं।इतिहास तो त्यागा भी नही जा सकता।
मेरे और आपके छोड़ देने से, त्याग देने से, मेरे और आपके इतिहास से मेरा और आपका पिंड थोड़े ही छूट जायेगा।
बंदरिया भी अंततः मरे हुए बच्चे को फेंक देती है। ममता त्यागनी ही पड़ती है।
बेवजह इतिहास से ममता प्रवंचना को जन्म देती है।
भारत का ग्रामीण परिवेश गौरवशाली इतिहास की नशे की गोली में अभी भी बेसुध है। उसे न वर्तमान की चिन्ता है, न भविष्य की कोई योजना है।
गाँव से मेरा रिश्ता इसी चिंता को लेकर रोज और गहरा होते जा रहा है।
ॐ शान्ति !!
शहरों में बस रहा आजकल जन मानस भी तो कभी न कभी, कहीं न कहीं, इन गाँवों से जुड़ा है। मैं और मेरी जड़ें भी किसी गाँव मे ही मिलेगी। मुझे इन गाँवों से मातृ भाव का जुड़ाव है, पितृ भाव का संकोच, भातृ भाव की प्रतियोगिता और पुत्र भाव की चिंता। अपनापन है अतः कभी कभी उबल पड़ता हूँ, फूट जाता हूँ
क्षमा करेंगें।
आज जो विकृतियाँ गाँवों में है वे ही सज संवर कर, शहरों में भी होगी ही।
में केवल इस बात से चिंतित हूँ कि भारत के गाँव, हमारे आपके गाँव मे एक प्रकार की जड़ता है, गति-शून्यता है, परिवर्तन के प्रति उदासीनता है। गांवों में जमीनी यथास्थितिवाद है।
जब हम गाँव मे होते है तो हमलोग सभ्य समाज की तुलना में बहुत धीरे धीरे चल रहे होते हैं। हम वास्तव में बहुत पीछे है, या पीछे छूट गये है या हमें पीछे छोड़ दिया गया है।
यह जानना और समझना हमारे लिए कितना भी कठिन और कष्टकारी क्यों न हो, हमे समझना ही होगा।
किसी प्राचीन ब्यवस्था के अवशेषों के नाम और हम अपना वर्तमान नष्ट नहीं कर सकते।
गौरवशाली इतिहास, यदि हो तो भी, कोई अमृत नहीं, कोई रामबाण दवा नहीं, जिसे पिला कर मर रहे वर्तमान को जिंदा रखा जा सके।
निष्प्राण हो रहे वर्तमान को वर्तमान के अपने पुरुषार्थ से ही बचाया जा सकता है।
भूत तो भूत ही रहेगा। इतिहास तो इतिहास ही रहेगा। वह वर्तमान या भविष्य नहीं हो सकता।इतिहास हर गुजर रहे पल के साथ और गहराई में चला जा रहा है।
इतिहास वर्तमान के लिये नींव भर हो सकता है, उससे आगे कुछ भी नहीं।
नींव के पत्थरों को निकाल निकाल कर दिखाने से वर्तमान का महल नहीं खड़ा किया जा सकता। खामखाह नींव खोदते रहियेगा ति वर्तमान तो हाथ से जायेगा ही, पुरानी नींव भी समाप्त हो जायेगी।
भारतीय गांवों में दादा परदादा पुरखों के जमाने की गाथाएँ वर्तमान को घुन की तरह लगी जा रही है, खाये जा रही है।इतिहास वर्तमान और साथ में भविष्य को भी बाँधे जा रहा है। इतिहास कितना भी भब्य हो वह रहेगा इतिहास ही।
मिस्र के पिरामिड हो या नालंदा के खंडहर - वे न तो वर्तमान हो सकते , न वर्तमान को गति दे सकते, वे वर्तमान के नियंता नहीं हो सकते । वे बर्तमान के लिये प्रेरणा या लक्ष्य या गंतब्य नहीं हो सकते ।
आर्यभट्ट, वराहमिहिर, चरक, सुश्रुत, गर्ग, बुद्ध, महावीर, कन्फ्यूशियस, वाल्टेयर, रूसो, , एरिस्टोटल, ह्वेनसांग, फाह्यान, इब्नबतूता, आर्कमिडीज, न्यूटन, आइंस्टाइन, कालिदास, शेक्सपियर -ये सब कितने भी महान, पूज्य क्यों न हो, वर्तमान की परिधि नहीं हो सकते।
जो समाज इन्हीं में से किसी एक को अपना केंद्र मान कर वर्तमान या भविष्य की रेखा या वृत्त खींचने की गलती करता है, वह एक सर्व कालिक भूल कर रहा है
इतिहास जे प्रति ममता त्यागना ही पड़ेगी।इतिहास त्यागने की जरूरत नहीं।इतिहास तो त्यागा भी नही जा सकता।
मेरे और आपके छोड़ देने से, त्याग देने से, मेरे और आपके इतिहास से मेरा और आपका पिंड थोड़े ही छूट जायेगा।
बंदरिया भी अंततः मरे हुए बच्चे को फेंक देती है। ममता त्यागनी ही पड़ती है।
बेवजह इतिहास से ममता प्रवंचना को जन्म देती है।
भारत का ग्रामीण परिवेश गौरवशाली इतिहास की नशे की गोली में अभी भी बेसुध है। उसे न वर्तमान की चिन्ता है, न भविष्य की कोई योजना है।
गाँव से मेरा रिश्ता इसी चिंता को लेकर रोज और गहरा होते जा रहा है।
ॐ शान्ति !!
बड़प्पन तुम्हारा , तुम्हें मुबारक
तुम तो बड़े हो ही, रहोगे ही ; तुम्हें कोई छोटा कह , कर या बोल भी देगा तो कोइ खास फर्क नहीं पड़ेगा, तुम उसे नजरअन्दाज भी कर सकते हो - माफ कर दोगे तो और भी बड़े हो जाओगे ।
जन्म-जात जो बड़े ठहरे - थोड़ा बहुत उपर-नीचे, इधर-उधर भी करोगे तो शायद चल जायेगा - किसी की क्या हिम्मत जो अंगुली भी उठाये ।
पर प्लीज , मुझे मेरे हाल पर छोड़ देना ।
मुझे छोटा कह डालोगे ( यद्यपि मैं हूँ ) तो मेरा शेष ( हो सकता है तुम्हारा भी ) जीवन ही मुश्किल हो जायेगा ।
मुझे मैं जैसा हूँ, वैसा बस रहने भर दो ।
अपने दम पर !!
तुम्हारी दया या तरस या भीख, रहम या करम पर नहीं !!
या फिर मुझे तुम्हारे बड़प्पन से ही निपटना पड़ेगा हर चौक - चौपाल - चौरस्ते - चौराहे - नुक्कड़ - मोड़ पर .
हो सका है तुम्हारा बड़प्पन खतरे में पड़ जाये.
जन्म-जात जो बड़े ठहरे - थोड़ा बहुत उपर-नीचे, इधर-उधर भी करोगे तो शायद चल जायेगा - किसी की क्या हिम्मत जो अंगुली भी उठाये ।
पर प्लीज , मुझे मेरे हाल पर छोड़ देना ।
मुझे छोटा कह डालोगे ( यद्यपि मैं हूँ ) तो मेरा शेष ( हो सकता है तुम्हारा भी ) जीवन ही मुश्किल हो जायेगा ।
मुझे मैं जैसा हूँ, वैसा बस रहने भर दो ।
अपने दम पर !!
तुम्हारी दया या तरस या भीख, रहम या करम पर नहीं !!
या फिर मुझे तुम्हारे बड़प्पन से ही निपटना पड़ेगा हर चौक - चौपाल - चौरस्ते - चौराहे - नुक्कड़ - मोड़ पर .
हो सका है तुम्हारा बड़प्पन खतरे में पड़ जाये.
हमारे गाँवों का शेष
बिहार, यूपी ही नहीं, सपूरन भारत का ग्रामीण परिवेश बड़ा ही सहज होते हुए भी आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और संरचना के हिसाब से अध्ययन की दृष्टि से विलक्षण जटिलताएं समेटे हुए है।
कश्मीर से कन्याकुमारी तक किसी भी कस्बाई शहर या सड़क के पांच सैट किलोमीटर अंदर चले जाइये तो आपको भारत के इस ग्रामीण जीवन का सहज शांत स्वरूप दिखेगा वह आश्चर्यजनक होगा। हारे-थके से परिवार, सभी के चेहरे पर लगभग एक ही प्रकार की शांति विराजमान, लगभग शांत, बुझा हुआ सा, न कोई उत्तेजना, न कोई उद्वेग, लगभग कोई शिकायत भी नहीं, । अजीब सा भाव इन लोगों के चेहरे पर होता है।
गर्म तपती रेत हो, पहाड़ी या पठारी इलाका हो, जंगल या समुद्र या नदी का इलाका हो, सूखा हो, बाढ़ हो, आंधी हो, तूफान हो, इन सबके शामे ये विवश होते हैं।
पिछले 30–40 सालों से तो ये लोग अपने ही लोगों के सामने विवश हो रहे हैं।सामान्यतः विवश होकर तो लोग विद्रोह ही न करते हैं।पर अजीब बात है - भारत के ग्रामीण परिवेश में सतह पर विवशता- अकुलाहट तो दिखती है, पर विद्रोह के अंकुरित बीज नहीं दिखते।धँसी बुझी आँख तो दिखती है पर ठोस उद्वेग नहीं दिखता।
कभी कभार यह विवशता यहाँ वहाँ छोटे मोटे विस्फोट की तरह प्रतिक्रिया करती मिल जातो है पर किसी बड़ी प्रतिक्रिया का पूर्ण अभाव होता है। समझ में नहीं आता , क्यों ?
भारतीय ग्रामीण जीवन की सतह विवशता, शोषण, अभाव, विषमता आदि का एक स्पष्ट उदाहरण है।इन सारी विशेषताओं का जो प्रभाव किसी दूसरे समाज में होता ही है वह भारतीय समाज में क्यों नहीं होता यह चिंतनीय है।
इतने भारी शोषण, निराशा, विषमता के बाद भी क्यों नहीं विद्रोह किबसी स्थिति कभी नहीं बन पाती , यह विचारणीय है।
आज नहीं, यह स्थिति तो सदियों से इसी प्रकार रही होगी।
हो सकता है कि जनसँख्या के दबाव के कारण और भूमि के सीमित होने के कारण ग्रामीण क्षेत्रों का आर्थिक समीकरण विगत सौ पचास सालों में बहुत अधिक बदल गया हो। किंतु इसके पहले भी खुशहाली तो नहीं ही रही।
मैंने ग्रामीणों से उनके पूर्वजों के बारे में पूछा।पर वे कोई कुछ खास बताने की स्थिति में नहीं है। वस्तुतः भारतीय ग्राम ब्यवस्था में सम्पन्नता का कोई दिखने, जानने योग्य इतिहास ही नहीं है। बस एक सन्तुष्ट से जीवन, एक स्वावलम्बी सा जीवन । यह एक ऐसा समाज है जिसके पास कोई योजना ही नहीं, कोई स्वप्न ही नहीं।
लगता है जबभरत के गाँव के लोग सोते है सपने भारतीय गाँवों के आस वास भी नहीं फटकते।
आखिर क्यों ?
असम से लेकर राजस्थान, बिहार, उत्तराखंड,छतीसगढ़, उड़ीसा - सारे भारत वर्ष के प्रत्येक गाँव से किशोरों के लगातार पलायन हो रहा है।
ये यूवक अपने गाँव मे ही रुक कर क्यों नहीं अपने भविष्य का कोई स्वप्न देख पाते ?
गाँव के किसी पेड़ के नीचे के स्वप्न में और कलकत्ता, दिल्ली, इंदौर, सूरत, अमरावती, राजकोट, बंगलौर या गंगटोक के फुटपाथ पर के स्वप्न में इतना अंतर होगा, मुझे तो समझ में नहीं आता।
बड़े शहर में चार -पांच-छः हजार की नौकरी, क्या यही स्वप्न था जिसके लिए किसी ट्रेन की छत पर बैठ कर वह किशोर चला गया, गाँव से निकल गया।
और फिर काम की जगह से कम के घण्टों के बाद अगले दिन फिर काम की जगह वापस लौटने के अंतराल के बीच फुटपाथ के इस कोने या उस कोने पर समय बिताता युवक।
अब तो घण्टे दो घण्टे सुस्ताने के लिये बस की पीछे वाली सीट पर टिकट ले कर बैठ जाना भी महंगा हो गया है।पन्द्रह बीस रुपये लग जाते हैं।
मैं ग्रामीण क्षेत्र के ऐसे मजदूरों को जानता हूँ, जो दिन भर में दो शिफ्ट मजदूरी करते है। पहली इस लिये की मजदूरी करेंगे, दूसरी इस लिये की अब कहाँ बैठेंगे।
इन ग्रामीण युवकों को शहरों के बड़े बड़े मार्केटिंग काम्प्लेक्स, फुटपाथ, पार्क, पुरानी गद्दी, ऑफिस, प्लेटफार्म, रेलवे के किनारे फलैक्स, बस स्टैंड्स परतमम स्थानों पर बेसुध पड़े देखा जा सकता है।
थके हारे निस्तेज हो कर जब ये शहरों के फ़ूटपथों पर सोये पड़े रहते है तो इनकी स्थिति बड़ी अजीब सी होती है।मुझे तो लगता है कि हमारे भारत का पूरा गाँव ही नँगा हो कर इन शहरों की गोद में बेशर्मी से जगह खोज रहा है।
मुझे यह अस्मिता का आत्म समर्पण प्रतीत होता है।
यह भविष्य का शील हरण है।
आत्म सम्मान युक्त राष्टीय भविष्य का निर्माण इस प्रकार पद दलित स्वतः स्खलित युवा पीढ़ी को नोच नोच कर नहीं किया जा सकता।
करोड़ों की सँख्या में इस प्रकार के स्वतः अपमानित युवकों को देख कर में ब्याकुल हो उठता हूँ।
इनके पिता ने पूरी जिंदगी क्या इसी युवा पीढ़ी के लिये लगा दी ?
फिर लगता है कि यह जो आज की गाँवों सेतूत रही युवा पीढ़ी है वह भी अगली छिन्न ब्यक्तित्व वाली पीढ़ी को ही तो जन्म देगी।फिर अगली पीढ़ी किसी दूसरे शहर में फूटपाथ तलाशती फिरेगी।
क्या गाँवों में वास्तव में कुछ भी शेष नहीं रह गया है ?
क्या फुटपाथ की यह जिंदगी, धुएँ और एसिड की यह जिंदगी गांव की जिंदगी से बेहतर है ?
इन फुटपाथ वालों की बात क्यों करते है ?
गाँव की अपनी पाँच दस बीघा जमीन बेच कर इंजीनियर का लेबल लगाये हुए युवक आखिर क्यों गांवों से हजारो किलोमीटर दूर जीवन बसर कर रहा है।
तीन कमरों का फ्लैट, आगे पीछे मिला कर सौ गज जमीन, उसमें युवक का स्कूटर, सुबह की चाय, एक कुर्सी पर वह, दूसरी पर उसकी, और एक दो चार साल का बच्चा चुइंगम खाते उछल रहा है।
यही तो इस इंजीनियर युवक की जिंदगी है। इसी फ्लैट के दो चार हजार गज दूर इसी इंजीनियर के गाँव जैसे ही एक दूसरे गाँव से इसी युवक जैसा ही कोई अपनी दस पाँच बीघा जमीन, खेत बेच कर गाँव से दूर चला गया है।
आखिर क्यों ?
फिर सोचता हूँ, जमीन तोवजयों की त्यों है। उस पर काम करने वाले हाथ बदल भर गये हैं।
हजारों प्रश्न उठते है।
जो लड़का रामू बन कर दिल्ली की शालीमार बाग में पन्द्रह करोड़ की कोठी में चौका बरतन करता है वह गुमला पहुचते ही कैसे अल्फ्रेड लकड़ा बन जाता है। आखिर क्यों।
किसी जिला स्तर की कचहरी में रेल में यात्रियों को नशा खिला कर लूटने के आरोप में बंदी ब्यक्ति येन केन प्रकारेण जेल से छूट कर अपने गाँव पहुँचते ही बाबू साहब, पण्डित जी कैसे बन जाता है ?
कभी कभी सोचता हूँ कि भारत का ग्रामीण अमूमन गाँजे, अफीम आदि की खेती नहीं करते, शायद इसी लिये।
भारत के गाँवों से धोखा दे कर बालाओं को लाया जा सकता है और उन्हें मजबूर कर कोठे पर बैठाया जा सकता है पर आज भी गाँव से एक भी युवती स्वेच्छा से इस उद्देश्य से कदम बाहर नहीं निकलेगी।
शायद इसी लिये हमारा गांव वैसा दिखता है, जैसा है।
हमारे गाँव के युवक-युवतियों को आज भीबपनर शरीर से कपड़े उतारने में झिझक होती है।
इसी लिये हमारा गाँव आज भी वैसा है जैसा दिखता है।
हमारे गाँव का किसान मिट्टी में से गेहूं, अनाज, तेलहन, दलहन उपजाता है, दाने दाने को चुन चुन ,इकट्ठा कर बोरियों में भरता रहता है, व्हबुन बोरियों में अपनी ताकत भर है विजातीय पदार्थ, बीज निकालते रहता है। वह अन्न दाता है।
अपनी ओर से वह उन बोरियों में मुट्ठी भर भी कंकड़ पत्थर नहीं मिलाता, इसी लिये वह वैसा है जैसा दिखता है।
मेरे गाँव का ग्वाला ब्लोटिंग पेपर इस्तेमाल नहीं करता, इस लिये वह वैसा है जैसा दिखता है।
मैंने गाँव के सब्जी उगाने वालों को सब्जी की कभी डेंटिंग, पेंटिंग करते नहीं देखा, शायद इस लिये मेरा गाँव उदास है।
कश्मीर से कन्याकुमारी तक किसी भी कस्बाई शहर या सड़क के पांच सैट किलोमीटर अंदर चले जाइये तो आपको भारत के इस ग्रामीण जीवन का सहज शांत स्वरूप दिखेगा वह आश्चर्यजनक होगा। हारे-थके से परिवार, सभी के चेहरे पर लगभग एक ही प्रकार की शांति विराजमान, लगभग शांत, बुझा हुआ सा, न कोई उत्तेजना, न कोई उद्वेग, लगभग कोई शिकायत भी नहीं, । अजीब सा भाव इन लोगों के चेहरे पर होता है।
गर्म तपती रेत हो, पहाड़ी या पठारी इलाका हो, जंगल या समुद्र या नदी का इलाका हो, सूखा हो, बाढ़ हो, आंधी हो, तूफान हो, इन सबके शामे ये विवश होते हैं।
पिछले 30–40 सालों से तो ये लोग अपने ही लोगों के सामने विवश हो रहे हैं।सामान्यतः विवश होकर तो लोग विद्रोह ही न करते हैं।पर अजीब बात है - भारत के ग्रामीण परिवेश में सतह पर विवशता- अकुलाहट तो दिखती है, पर विद्रोह के अंकुरित बीज नहीं दिखते।धँसी बुझी आँख तो दिखती है पर ठोस उद्वेग नहीं दिखता।
कभी कभार यह विवशता यहाँ वहाँ छोटे मोटे विस्फोट की तरह प्रतिक्रिया करती मिल जातो है पर किसी बड़ी प्रतिक्रिया का पूर्ण अभाव होता है। समझ में नहीं आता , क्यों ?
भारतीय ग्रामीण जीवन की सतह विवशता, शोषण, अभाव, विषमता आदि का एक स्पष्ट उदाहरण है।इन सारी विशेषताओं का जो प्रभाव किसी दूसरे समाज में होता ही है वह भारतीय समाज में क्यों नहीं होता यह चिंतनीय है।
इतने भारी शोषण, निराशा, विषमता के बाद भी क्यों नहीं विद्रोह किबसी स्थिति कभी नहीं बन पाती , यह विचारणीय है।
आज नहीं, यह स्थिति तो सदियों से इसी प्रकार रही होगी।
हो सकता है कि जनसँख्या के दबाव के कारण और भूमि के सीमित होने के कारण ग्रामीण क्षेत्रों का आर्थिक समीकरण विगत सौ पचास सालों में बहुत अधिक बदल गया हो। किंतु इसके पहले भी खुशहाली तो नहीं ही रही।
मैंने ग्रामीणों से उनके पूर्वजों के बारे में पूछा।पर वे कोई कुछ खास बताने की स्थिति में नहीं है। वस्तुतः भारतीय ग्राम ब्यवस्था में सम्पन्नता का कोई दिखने, जानने योग्य इतिहास ही नहीं है। बस एक सन्तुष्ट से जीवन, एक स्वावलम्बी सा जीवन । यह एक ऐसा समाज है जिसके पास कोई योजना ही नहीं, कोई स्वप्न ही नहीं।
लगता है जबभरत के गाँव के लोग सोते है सपने भारतीय गाँवों के आस वास भी नहीं फटकते।
आखिर क्यों ?
असम से लेकर राजस्थान, बिहार, उत्तराखंड,छतीसगढ़, उड़ीसा - सारे भारत वर्ष के प्रत्येक गाँव से किशोरों के लगातार पलायन हो रहा है।
ये यूवक अपने गाँव मे ही रुक कर क्यों नहीं अपने भविष्य का कोई स्वप्न देख पाते ?
गाँव के किसी पेड़ के नीचे के स्वप्न में और कलकत्ता, दिल्ली, इंदौर, सूरत, अमरावती, राजकोट, बंगलौर या गंगटोक के फुटपाथ पर के स्वप्न में इतना अंतर होगा, मुझे तो समझ में नहीं आता।
बड़े शहर में चार -पांच-छः हजार की नौकरी, क्या यही स्वप्न था जिसके लिए किसी ट्रेन की छत पर बैठ कर वह किशोर चला गया, गाँव से निकल गया।
और फिर काम की जगह से कम के घण्टों के बाद अगले दिन फिर काम की जगह वापस लौटने के अंतराल के बीच फुटपाथ के इस कोने या उस कोने पर समय बिताता युवक।
अब तो घण्टे दो घण्टे सुस्ताने के लिये बस की पीछे वाली सीट पर टिकट ले कर बैठ जाना भी महंगा हो गया है।पन्द्रह बीस रुपये लग जाते हैं।
मैं ग्रामीण क्षेत्र के ऐसे मजदूरों को जानता हूँ, जो दिन भर में दो शिफ्ट मजदूरी करते है। पहली इस लिये की मजदूरी करेंगे, दूसरी इस लिये की अब कहाँ बैठेंगे।
इन ग्रामीण युवकों को शहरों के बड़े बड़े मार्केटिंग काम्प्लेक्स, फुटपाथ, पार्क, पुरानी गद्दी, ऑफिस, प्लेटफार्म, रेलवे के किनारे फलैक्स, बस स्टैंड्स परतमम स्थानों पर बेसुध पड़े देखा जा सकता है।
थके हारे निस्तेज हो कर जब ये शहरों के फ़ूटपथों पर सोये पड़े रहते है तो इनकी स्थिति बड़ी अजीब सी होती है।मुझे तो लगता है कि हमारे भारत का पूरा गाँव ही नँगा हो कर इन शहरों की गोद में बेशर्मी से जगह खोज रहा है।
मुझे यह अस्मिता का आत्म समर्पण प्रतीत होता है।
यह भविष्य का शील हरण है।
आत्म सम्मान युक्त राष्टीय भविष्य का निर्माण इस प्रकार पद दलित स्वतः स्खलित युवा पीढ़ी को नोच नोच कर नहीं किया जा सकता।
करोड़ों की सँख्या में इस प्रकार के स्वतः अपमानित युवकों को देख कर में ब्याकुल हो उठता हूँ।
इनके पिता ने पूरी जिंदगी क्या इसी युवा पीढ़ी के लिये लगा दी ?
फिर लगता है कि यह जो आज की गाँवों सेतूत रही युवा पीढ़ी है वह भी अगली छिन्न ब्यक्तित्व वाली पीढ़ी को ही तो जन्म देगी।फिर अगली पीढ़ी किसी दूसरे शहर में फूटपाथ तलाशती फिरेगी।
क्या गाँवों में वास्तव में कुछ भी शेष नहीं रह गया है ?
क्या फुटपाथ की यह जिंदगी, धुएँ और एसिड की यह जिंदगी गांव की जिंदगी से बेहतर है ?
इन फुटपाथ वालों की बात क्यों करते है ?
गाँव की अपनी पाँच दस बीघा जमीन बेच कर इंजीनियर का लेबल लगाये हुए युवक आखिर क्यों गांवों से हजारो किलोमीटर दूर जीवन बसर कर रहा है।
तीन कमरों का फ्लैट, आगे पीछे मिला कर सौ गज जमीन, उसमें युवक का स्कूटर, सुबह की चाय, एक कुर्सी पर वह, दूसरी पर उसकी, और एक दो चार साल का बच्चा चुइंगम खाते उछल रहा है।
यही तो इस इंजीनियर युवक की जिंदगी है। इसी फ्लैट के दो चार हजार गज दूर इसी इंजीनियर के गाँव जैसे ही एक दूसरे गाँव से इसी युवक जैसा ही कोई अपनी दस पाँच बीघा जमीन, खेत बेच कर गाँव से दूर चला गया है।
आखिर क्यों ?
फिर सोचता हूँ, जमीन तोवजयों की त्यों है। उस पर काम करने वाले हाथ बदल भर गये हैं।
हजारों प्रश्न उठते है।
जो लड़का रामू बन कर दिल्ली की शालीमार बाग में पन्द्रह करोड़ की कोठी में चौका बरतन करता है वह गुमला पहुचते ही कैसे अल्फ्रेड लकड़ा बन जाता है। आखिर क्यों।
किसी जिला स्तर की कचहरी में रेल में यात्रियों को नशा खिला कर लूटने के आरोप में बंदी ब्यक्ति येन केन प्रकारेण जेल से छूट कर अपने गाँव पहुँचते ही बाबू साहब, पण्डित जी कैसे बन जाता है ?
कभी कभी सोचता हूँ कि भारत का ग्रामीण अमूमन गाँजे, अफीम आदि की खेती नहीं करते, शायद इसी लिये।
भारत के गाँवों से धोखा दे कर बालाओं को लाया जा सकता है और उन्हें मजबूर कर कोठे पर बैठाया जा सकता है पर आज भी गाँव से एक भी युवती स्वेच्छा से इस उद्देश्य से कदम बाहर नहीं निकलेगी।
शायद इसी लिये हमारा गांव वैसा दिखता है, जैसा है।
हमारे गाँव के युवक-युवतियों को आज भीबपनर शरीर से कपड़े उतारने में झिझक होती है।
इसी लिये हमारा गाँव आज भी वैसा है जैसा दिखता है।
हमारे गाँव का किसान मिट्टी में से गेहूं, अनाज, तेलहन, दलहन उपजाता है, दाने दाने को चुन चुन ,इकट्ठा कर बोरियों में भरता रहता है, व्हबुन बोरियों में अपनी ताकत भर है विजातीय पदार्थ, बीज निकालते रहता है। वह अन्न दाता है।
अपनी ओर से वह उन बोरियों में मुट्ठी भर भी कंकड़ पत्थर नहीं मिलाता, इसी लिये वह वैसा है जैसा दिखता है।
मेरे गाँव का ग्वाला ब्लोटिंग पेपर इस्तेमाल नहीं करता, इस लिये वह वैसा है जैसा दिखता है।
मैंने गाँव के सब्जी उगाने वालों को सब्जी की कभी डेंटिंग, पेंटिंग करते नहीं देखा, शायद इस लिये मेरा गाँव उदास है।
लगभग 30 साल पुरानी बात है। एक बृद्ध नाम चीन ब्यक्ति अपने 13 वर्षीय नाती को ले मेरे काम करने की जगह आ गए। कहने लगे यह जब से आया है इसका हमारे पास मन ही नहीं लग रहा। जाने जाने को कह रहा है। कृपया आप इसका मन लगाएं।
मैंने उन वृद्ध सज्जन को कहा कि आप कैसी बात कर रहे है।
वह बालक बोल उठा, आप नानाजी को क्यों बोल रहे है, नानाजी ने बस आपके बारे में बताया भर है, मैं आया तो अपने मन से हूँ।
में बालक का आत्मविश्वास देख दंग रह गया। पता चला बोकारो DPS का क्लास 8 का विद्यार्थी है।
मैंने पूछा - मेरे कुछ प्रश्नों का उत्तर दोगे।
बालक बोलता है - पूछिये, में जानता हूँ आप अवश्य कुछ पूछेंगे मुझे जानने पहचानने के लिये।
मैंने पूछा - किन्ही चार लोगों का नाम लो जिनके मुँह से आप अपना नाम सुनना पसंद करोगे।
उसने तड़ाक से जबाब दिया -
गाँव मे मेरी दादी है-अब बहुत दिन नहीं जियेगी उसके मुँह से, मेरे भैया की एक बेटी है, अभी बहुत छोटी है, बोलना शुरू नहीं कि है ,उसके मुँह से, अपने क्लास टीचर प्रिंसिपल के मुँह से, और टी वी के न्यूज एनाउंसर के मुँह से।
उसका जबाब मुझे आज भी ज्यों का त्यों याद है। चमत्कृत करता है
मैंने उन वृद्ध सज्जन को कहा कि आप कैसी बात कर रहे है।
वह बालक बोल उठा, आप नानाजी को क्यों बोल रहे है, नानाजी ने बस आपके बारे में बताया भर है, मैं आया तो अपने मन से हूँ।
में बालक का आत्मविश्वास देख दंग रह गया। पता चला बोकारो DPS का क्लास 8 का विद्यार्थी है।
मैंने पूछा - मेरे कुछ प्रश्नों का उत्तर दोगे।
बालक बोलता है - पूछिये, में जानता हूँ आप अवश्य कुछ पूछेंगे मुझे जानने पहचानने के लिये।
मैंने पूछा - किन्ही चार लोगों का नाम लो जिनके मुँह से आप अपना नाम सुनना पसंद करोगे।
उसने तड़ाक से जबाब दिया -
गाँव मे मेरी दादी है-अब बहुत दिन नहीं जियेगी उसके मुँह से, मेरे भैया की एक बेटी है, अभी बहुत छोटी है, बोलना शुरू नहीं कि है ,उसके मुँह से, अपने क्लास टीचर प्रिंसिपल के मुँह से, और टी वी के न्यूज एनाउंसर के मुँह से।
उसका जबाब मुझे आज भी ज्यों का त्यों याद है। चमत्कृत करता है
एक शरारत
एक रात मैं अपने घर के बाहर पपीते के पेड़ की ओट हो गया। शाम हो चुकी थी। बिजली लाइन गई हुई थी। अंधेरा हो चला था। मेरी पत्नी घर से बाहर निकली। शायद गाय घर तरफ जाना था। एकाएक मैं ने पपीते की एक डाल (एक पत्ता ) को नचाना शुरू किया और कुछ आवाज करते हुए अपनी पत्नी की तरफ मुँह शरीर को पत्ते की आड़ में छिपाते आगे बढ़ा। मेरी पत्नी इस अनायास हरकत से बुरी तरह डर गई। जोर जोर से चिल्लाने लगी। बच्चे उनकी घर के अंदर चिल्लाहट सुन डर कर चिल्लाने लगे। माँ दौड़ कर चिल्लाते हुए बाहर भागी। भाभी अलग भागी। लोगों को लगा अंधेरे में कुछ काट गया।
मैं भी घबरा गया। पाँच सात मिनट लग गये सब को सब कुछ समझने, समझाने और शांत होने में।
माँ से अच्छी डांट मिली।
मैडम कई दिन नाराज रही।
बच्चे बहुत दिन डरे डरे रहे।
शरारत मुझे इतनी शायद नहॉ करनी चाहिये थी। लगभग 35 की मेरी उम्र हो चुकी थी।
सो सॉरी !!
मैं भी घबरा गया। पाँच सात मिनट लग गये सब को सब कुछ समझने, समझाने और शांत होने में।
माँ से अच्छी डांट मिली।
मैडम कई दिन नाराज रही।
बच्चे बहुत दिन डरे डरे रहे।
शरारत मुझे इतनी शायद नहॉ करनी चाहिये थी। लगभग 35 की मेरी उम्र हो चुकी थी।
सो सॉरी !!
बेगूसराय कोर्ट की स्मृति
- पुलिस द्वारा तो अजीब ढंग से सुलझाया गया, जज साहब ने भी सुलझाया :
अनुसन्धान में पता चला कि वस्तुतः सूचना दाता ने ही अपने सरकारी शिक्षक पिता की हत्या कर दी थी ताकि उसे अनुकम्पा के आधार पर सरकारी नौकरी मिल जाये। अनुसंधानक के समक्ष अनेक ग्रामीणों ने इसी प्रकार का बयान दिया। मृतक की माँ, मृतक के एक लड़के की पत्नी ने मजिस्ट्रेट के समक्ष बयान भी दर्ज करवाया।
जज के समक्ष विचारण के क्रम में सारे ग्रामीण पक्ष द्रोही हुए। पर उन्होंने कहा कि मृतक की हत्या तो हुई पर कैसे किन परिस्थितियों में हुई नहीं पता।
मृतक की पूतोह एक दिन आई , मजिस्ट्रेट के समक्ष दिये बयान के अनुरूप बयान दे रही थी कि बचाव पक्ष ने पूरी जिरह न कर आंशिक जिरह की। अगले दिन वह भी बोली कि उसने अपने ससुर की हत्या होते नहीं देखा। मजिस्ट्रेट के सामने पुलिस के कहने पर बयान दिया। उसने कहा वह भाग गई थी। बचाव पक्ष सन्तुष्ट ।।
मृतक की पत्नी आई। वह अभियुक्त की माँ थी । दो दिन तो उसने अपने पति की हत्या पुत्र द्वारा किये जाने और मजिस्ट्रेट के समक्ष बयान की बात कही पर तीसरे दिन उसने भी कहा कि वह तो भाग गई थी, उसके पति की हत्या कैसे हुई उसने कुछ नहीं देखा।उसने बताया कि मजिस्ट्रेट के सामने उसने बयान बहकावे में दिया।
डॉक्टर आया । उसने मृतक की हत्या की गई इसको पुष्ट किया।
अनुसंधानक आया। उसने बताया कि खुद आरोपी ने ही प्रथम सूचना स्वेच्छया दायर की। अनुसन्धान के अंत मे सूचक पर ही अपराध प्रमाणित हुआ।
जज साहब ने सूचक अभियुक्त से पूछा कि क्या प्रथम सूचना पत्र आपने प्रस्तुत किया। जज साहब ने पूछा कि आपके द्वारा प्रस्तुत प्रथम सूचना पत्र जे अनुसार वारदात के समय आप उपस्थित थे।जज साहब ने पूछा कि गवाहों ने बताया कि मृतक की हत्या हुई।
अभियुक्त ने जबाब दिया जी हाँ।जज साहब ने पूछा कि आपकी मां, भाभी ने अनुसन्धान के दौरान मजिस्ट्रेट के सामने बयान दिया था तो अभियुक्त ने कहा कि पुलिस के दबाव में दिया।
जज साहब ने पूछा कि सफाई में क्या कहना है
तो उसने अपने पिता के बहुत से दुश्मन होने की बात और बहुत से मुकदमें में संलिप्त होने की बात कही।
सफाई में अभियुक्त ने मृतक और अन्य लोगों के बीच मुकदमों के कागज दिया।
वकील साहब ने बहस की कि इस मुकदमे के सारे गवाह मुकर चुके है, फैसला कर दिया जाये।
जज साहब ने फैसला सुनाया की स्वीकृत रूप से सूचक-अभियुक्त मृतक की मृत्यु के समय साथ था। यह तथ्य स्वयम सूचक-अभियुक्त स्वीकार करता है। अभियोजन के ओर से जितने भी गवाह हुए कम से कम सभी ने एक स्वर में बताया कि मृतक की हत्या हुई। मृतक की पत्नी ने मजिस्ट्रेट के समक्ष बयान दिया और कोर्ट में भी थोड़ी देर तक ठहरी पर बाद में वह मजिस्ट्रेट के समक्ष बयान से पलट गई पर उसने भी मृतक के हत्या की ही बात कही। किसी भी गवाह ने मृतक के घर डकैती की बात नहीं कही। अनुसंधानक ने बताया कि उसने मृतक के घर डकैती का कोई प्रमाण नहीं पाया। मृतक की हत्या ही हुई। गांव के लोग डकैती को ब खूबी समझते है।किसी ने डकैती की बात नहीं कही। सूचक अभियुक्त ने अपनी प्रथम सूचना में अज्ञात लोगों द्वारा डकैती की सीधी कहानी और उसमें पिता की हत्या की बात कही है। उस समय सूचक जो अब अभियुक्त ही, एकमात्र सूचक ही था। उस वक्त वह अभियुक्त नहीं बना था ।उसने अपनी सूचना में और जज के पूछने पर भी स्वीकार किया कि वारदात के समय वह उपस्थित था ।अब अभिलेख पर डकैती का कोई प्रमाण नहीं है।घटना स्थल पर कोई विवाद है ही नहीं। मृतक की हत्या हुई इस पर विवाद रहा ही नहीं। सीधी सपाट मृतक की हत्या का मामला है। हत्या के समय अभियुक्त की उपस्थिति स्वीकृत है। अब अभियुक्त अपने पिता के दुश्मन और मुकदमे की बात कह रहा है। पर स्वयम अभियुक्त के सबसे पहले बयान में इन मुकदमों का या दुश्मनों का कोई जिक्र नहीं है।
इन सबको मिला कर जब मृतक की पत्नी के दो दिन तक कोर्ट में बयान और मजिस्ट्रेट के सामने बयान को देखने से लगता है अंत में पत्नी हार गई और माँ जीत गयी। उसकी गवाही को यदि वह आगे भी बढ़ाती तो भी उसका पति तो नहीं ही लौटता सो अंत में उसने ममता वश बेटे के लिये चुप रहना स्वीकार किया। पर वास्तव में उस माँ का मजिस्ट्रेट के सामने दिया बयान ही सही था।
जब मृतक की हत्या हुई उस समय अभियुक्त अकेला ही उपस्थित था और उसने पुलिस में डकैती की झूठी सूचना दी।
निष्कर्ष में पितृहन्ता को आजीवन कारावास।शायद अपील में भी निर्णय सम्पुष्ट हुआ
बड़े लोगों के सम्पर्क की इच्छा में बेगार सहायक होती है
थोड़ी सी उनकी बेगार कर, उनके नखरे उठा, उनको बर्दास्त कर।
जब मैं 20 साल का हुआ ही था तो स्थानीय सोशल क्लब जाने लगा था।क्लब के नियमानुसार मैं न क्लब के मेंबर हो सकता था न मेरा प्रवेश अनुमत था। मैं पाँच बजे शाम के बाद किसी समय एक बार क्लब के मेन गेट तक नियमित रूप से चला ही जाता था। स्थानीय स्तर पर क्लब शहर के सबसे बड़े अफसर, डॉक्टर, वकील ही जाते थे। लोगो के मन में क्लब के अंदर क्या होता है, को लेकर बड़ा कौतूहल रहता था। मेरे मन में भी था।इस बीच शहर के एक ADM से मेरे कलकत्ते में पढ़े होने के कारण औऱ जयप्रकाश आंदोलन में परीक्षा के बहिष्कार के बाद भी में परीक्षा देने गया था, इस कारण परिचय हो गया। एक दिन जाड़े के मौसम में मैं लगभग कौतूहल वश क्लब के गेट पर खड़ा था। ADM जीप से आये। मुझे देखे। क्लब के चक्कर लगाया और जाने लगे। मैंने ढीठ की तरह अंग्रेजी में पूछा क्या मैं क्लब को अंदर से देख सकता हूँ। ADM ने केयरटेकर को कहा दिखला दो। मुझे कहा कि यहाँ आज मीटिंग होने वाली है। आप देख कर तुरन्त निकल जाइयेगा।
बस केयर टेकर ने मुझे क्लब दिखाया। सब कुछ साधारण था। दो क्लब साइज कैरम बोर्ड, चार छः टेबल चार चार कुर्सियां, मुझे बताया गया - रम्मी, पपलू, ब्रीज खेलने के लिये, एक टेबल टेनिस कर लिये बड़ा सा रूम, दो चार और रूम। मैं यह सब देख कर इस प्रकार वापस निकला कि मैंने बहुत बड़ा तीर मार लिया है। बड़े चाव से मैंने लोगों को बताया कि मैं क्लब के अंदर गया।सब आश्चर्य चकित। मुझे बताया गया वहाँ नहीं जाने का , छोकरिबाजी और शराब का अड्डा है।
मैं फिर भी हर शाम दस पाँच मिनट के लिये जाता ही था।एक दिन कोई कारण वश एक टी टी बोल क्लब के मेन गेट से उछलते हुए बाहर आ गयी। पहली बार मैंने उसे छुआ, उठाया और उत्साह से क्लब के अंदर देने चला गया। देखा कोई साहब थे, अकेले ही टेबल टेनिस बाल के साथ दृबलिंग टाइप कर टाइम पास कर रहे थे।फिर तो हर दो चार दिन पर क्लब के अंदर जाने का अवसर मिलता रहा। टेबलों पर रखी ताश की गड्डियों को छुने लगा। ताश के शौकीन सबसे पहले आते। वे अकेले बैठ ताश मेक करते। ताश फेंटते। में उनके सधे हाथों को और ताश के पत्तों की फड़फड़ाहट को उत्सुकता से देखता।कभी कभार कोई पत्ता उड़ जाता, टेबल से नीचे गिर जाता तो मैं उसे बड़े गर्व से उठा टेबल पर रख देता। कभी कोई कैरम की गोटी बोर्ड से गिर जाती तो उठा देता। टेबलबटेनिस की बाल तो धीरे धीरे उठाने की मेरी अघोषित ड्यूटी ही हो गयी। कभी किसी को पान मंगाना हुआ तो मुझे कहता। सिगरेट के लिए भी। धीरे धीरे शायद एक वालेंटियर सेवक के रूप में मेरा क्लब जाना नियमित हो गया।
इस तरह बेगारी कर के मैं शहर के सारे वकीलों से परिचित हो गया, डॉक्टर भी जानने लगे या यूं कहिए कि मैं कुछ डॉक्टर, वकील, DM,SDO और कुछ अफसरों को जानने लगा।
धीरे धीरे मेरी पहुँच, स्वीकार्यता बढ़ने लगी।
मैं बड़ों के सम्पर्क में आने लगा था।
बड़े बड़ों की तरह हंसी मजाक करते तो मैं एकदम चुप। सिर झुका लेता।
कोई यदि मेरे किसी बॉडीलैंग्वेज पर आपत्ति करता तो मैं सिर झुका लेता।
पर उन लोगों के साथ उठते बैठते मेरे सोचने, समझने, उठने बैठने, बोलने चलने के ढंग में आश्चर्यजनक परिवर्तन आने लगा।
मेरी प्राथमिकताएं बदलने लगी।
मैं और अधिक सजग हो गया। धीरे धीरे मेरे अंदर अतिरिक्त आत्मविश्वास उत्पन्न होने लगा।
जब मैं 20 साल का हुआ ही था तो स्थानीय सोशल क्लब जाने लगा था।क्लब के नियमानुसार मैं न क्लब के मेंबर हो सकता था न मेरा प्रवेश अनुमत था। मैं पाँच बजे शाम के बाद किसी समय एक बार क्लब के मेन गेट तक नियमित रूप से चला ही जाता था। स्थानीय स्तर पर क्लब शहर के सबसे बड़े अफसर, डॉक्टर, वकील ही जाते थे। लोगो के मन में क्लब के अंदर क्या होता है, को लेकर बड़ा कौतूहल रहता था। मेरे मन में भी था।इस बीच शहर के एक ADM से मेरे कलकत्ते में पढ़े होने के कारण औऱ जयप्रकाश आंदोलन में परीक्षा के बहिष्कार के बाद भी में परीक्षा देने गया था, इस कारण परिचय हो गया। एक दिन जाड़े के मौसम में मैं लगभग कौतूहल वश क्लब के गेट पर खड़ा था। ADM जीप से आये। मुझे देखे। क्लब के चक्कर लगाया और जाने लगे। मैंने ढीठ की तरह अंग्रेजी में पूछा क्या मैं क्लब को अंदर से देख सकता हूँ। ADM ने केयरटेकर को कहा दिखला दो। मुझे कहा कि यहाँ आज मीटिंग होने वाली है। आप देख कर तुरन्त निकल जाइयेगा।
बस केयर टेकर ने मुझे क्लब दिखाया। सब कुछ साधारण था। दो क्लब साइज कैरम बोर्ड, चार छः टेबल चार चार कुर्सियां, मुझे बताया गया - रम्मी, पपलू, ब्रीज खेलने के लिये, एक टेबल टेनिस कर लिये बड़ा सा रूम, दो चार और रूम। मैं यह सब देख कर इस प्रकार वापस निकला कि मैंने बहुत बड़ा तीर मार लिया है। बड़े चाव से मैंने लोगों को बताया कि मैं क्लब के अंदर गया।सब आश्चर्य चकित। मुझे बताया गया वहाँ नहीं जाने का , छोकरिबाजी और शराब का अड्डा है।
मैं फिर भी हर शाम दस पाँच मिनट के लिये जाता ही था।एक दिन कोई कारण वश एक टी टी बोल क्लब के मेन गेट से उछलते हुए बाहर आ गयी। पहली बार मैंने उसे छुआ, उठाया और उत्साह से क्लब के अंदर देने चला गया। देखा कोई साहब थे, अकेले ही टेबल टेनिस बाल के साथ दृबलिंग टाइप कर टाइम पास कर रहे थे।फिर तो हर दो चार दिन पर क्लब के अंदर जाने का अवसर मिलता रहा। टेबलों पर रखी ताश की गड्डियों को छुने लगा। ताश के शौकीन सबसे पहले आते। वे अकेले बैठ ताश मेक करते। ताश फेंटते। में उनके सधे हाथों को और ताश के पत्तों की फड़फड़ाहट को उत्सुकता से देखता।कभी कभार कोई पत्ता उड़ जाता, टेबल से नीचे गिर जाता तो मैं उसे बड़े गर्व से उठा टेबल पर रख देता। कभी कोई कैरम की गोटी बोर्ड से गिर जाती तो उठा देता। टेबलबटेनिस की बाल तो धीरे धीरे उठाने की मेरी अघोषित ड्यूटी ही हो गयी। कभी किसी को पान मंगाना हुआ तो मुझे कहता। सिगरेट के लिए भी। धीरे धीरे शायद एक वालेंटियर सेवक के रूप में मेरा क्लब जाना नियमित हो गया।
इस तरह बेगारी कर के मैं शहर के सारे वकीलों से परिचित हो गया, डॉक्टर भी जानने लगे या यूं कहिए कि मैं कुछ डॉक्टर, वकील, DM,SDO और कुछ अफसरों को जानने लगा।
धीरे धीरे मेरी पहुँच, स्वीकार्यता बढ़ने लगी।
मैं बड़ों के सम्पर्क में आने लगा था।
बड़े बड़ों की तरह हंसी मजाक करते तो मैं एकदम चुप। सिर झुका लेता।
कोई यदि मेरे किसी बॉडीलैंग्वेज पर आपत्ति करता तो मैं सिर झुका लेता।
पर उन लोगों के साथ उठते बैठते मेरे सोचने, समझने, उठने बैठने, बोलने चलने के ढंग में आश्चर्यजनक परिवर्तन आने लगा।
मेरी प्राथमिकताएं बदलने लगी।
मैं और अधिक सजग हो गया। धीरे धीरे मेरे अंदर अतिरिक्त आत्मविश्वास उत्पन्न होने लगा।
Wednesday, 14 August 2019
Saturday, 10 August 2019
Some people are apprehensive whether the Kashmir decision and scrapping of Art 35A, some parts on Art 370 of our constitution may prove as fallacious and disastrous as that of demonitization.
That may be, if we once again conduct ourselves in the same way as we did while we faced demonitization.
Didn't we collude with those dishonest unscrupulous bankers, those cunning CAs, those Petrol Pump owners, those medicine shopkeepers, hospitals and did all those illegal transactions for our petty gains knowing fully well that Modi had the purest intentions and the decision was a financially economically only a bitter pill for individuals but was for betterment of nation.
If we once again conduct in the same way none can save us.
A decision howsoever honest, wise, well calculated and strategically sound has to be implemented through We The People . If we all start derailing the best of the all time strongest projects for our petty individual gains and destroy the national fabric, every thing is bound to fail.
We all did that with Demonitization and did that willfully, cunningly knowing fully well that it was an act of greed and against national policy and interest.
Now if we are really apprehensive of the success of our own Kashmir decision it is because we don't trust ourselves.
Let us trust ourselves and throw ourselves heart and soul into the success of our own Kashmir Decision.
We must watch every rupee moving into Kashmir and ensure that this must not go into the hands of those disturbing elements.
Didn't we ourselves provided the terror money through Hawala Mechanism manned by us. We helped them. We supported them out of our petty greed. If we continue to do that any more, believe me we will be doing real disservice to our own revered Motherland.
If we care for our own Kashmir, we must watch each individual moving in or out of JK and must not do any thing to provide cover to those anti national elements.
We can at least be truthfully law abiding citizen within.
But if we conduct ourselves in that tooth and nail anti Demonitisation squad, believe me the govt will not be the loser this time, We the People will lose everything- Nation,
Nationhood, National Pride and Identity.
That may be, if we once again conduct ourselves in the same way as we did while we faced demonitization.
Didn't we collude with those dishonest unscrupulous bankers, those cunning CAs, those Petrol Pump owners, those medicine shopkeepers, hospitals and did all those illegal transactions for our petty gains knowing fully well that Modi had the purest intentions and the decision was a financially economically only a bitter pill for individuals but was for betterment of nation.
If we once again conduct in the same way none can save us.
A decision howsoever honest, wise, well calculated and strategically sound has to be implemented through We The People . If we all start derailing the best of the all time strongest projects for our petty individual gains and destroy the national fabric, every thing is bound to fail.
We all did that with Demonitization and did that willfully, cunningly knowing fully well that it was an act of greed and against national policy and interest.
Now if we are really apprehensive of the success of our own Kashmir decision it is because we don't trust ourselves.
Let us trust ourselves and throw ourselves heart and soul into the success of our own Kashmir Decision.
We must watch every rupee moving into Kashmir and ensure that this must not go into the hands of those disturbing elements.
Didn't we ourselves provided the terror money through Hawala Mechanism manned by us. We helped them. We supported them out of our petty greed. If we continue to do that any more, believe me we will be doing real disservice to our own revered Motherland.
If we care for our own Kashmir, we must watch each individual moving in or out of JK and must not do any thing to provide cover to those anti national elements.
We can at least be truthfully law abiding citizen within.
But if we conduct ourselves in that tooth and nail anti Demonitisation squad, believe me the govt will not be the loser this time, We the People will lose everything- Nation,
Nationhood, National Pride and Identity.
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