मैंने दिन भर में कुछ देर के लिये बच्चों को फुटबाल खेलते देखा। कुछएक कभी कभार क्रिकेट खेलते भी अब दिख जाते है। गाँवों में ही अब ग्रामीण खेलों के प्रति चाव, आकर्षण लगभग खत्म हुआ चाहता है। बच्चों एवं किशोरों में वर्जित क्षेत्रों के प्रति एक सहज आकर्षण दिखा। वैसे यह आकर्षण शहरी किशोरों में, नवधनाढ्यों में सर्वाधिक दिखा।
देहात के इन बच्चों में मुझे इसी उम्र में ऐसे लक्षण दिखे जो निश्चित रूप से अपराध की दिशा की ओर बोध, संकेत करते हैं।
बहुत करीब से समझने की कोशिश करने पर पता चला कि उन्हें उन दिशाओं की ओर जाने से रोकने वाला, सही या गलत बताने वाला या किसी रचनात्मक काम में उलझाए रखने वाला या उनका सजग सहज मनोरंजन कटने वस्ल कोई है ही नहीं।
वे नए रेखियाते युवक यदि कुछ नया अच्छा करना भी चाहे तो कोई प्रेरणा नहीं, कोई अनुकूलता ही नहीं, और गलत करने पर कोई निषेध, विरोध, प्रतिबन्ध नहीं।
परम् स्वतंत्र न सिर पर कोउ, ऐसी स्थिति में ग्रामीण युवकों में एक निराश ब्याप्त हो ही जातो है।
ग्रामीण स्त्रियाँ या तो गम्भीर रूप से बीमार है और उनकी बीमारी का कोरे ध्यान तक करने वाला नहीं है। ग्रामीण स्त्रियाँ कठोरतम शारीरिक परिश्रम करती रहती है।वह भी लगभग बिना खाये पीये। ग्रामीण स्त्रियों के दो रूप होते हैं। अवकाश के क्षणों में पड़ोसियों से लड़ाई,दूसरा लगातार प्रजनन। ग्रामीण स्त्रियाँ लगातार पुरुषों के स्वाभाविक मनोरंजन की साधन होती है।
वैसे यह स्थिति शहरों मरण भी कमोबेश ऐसी ही है, प्रकार भेद के साथ। ग्रामीण परिवेश में मनोरंजन के साधन बहुत कम है, स्त्रियोचित मनोरंजन ज्ञान के साधन तो है ही नहीं।
भारतीय ग्रामीण परिवेश में स्त्रियों में नीरस निराशा का भाव अधिक प्रखर है। उन्हें न तो कोई सुरक्षा देता, न सम्मान, न प्रेरणा, न निषेध, न सहानुभूति। ये अपने परिवेश में तमाम प्रकार की हिंसा का लगातार शिकार होते रहती है। मैंने तमाम प्रकार की हिंसा शब्द का सजग प्रयोग विशेष कर किया है।
देहात के इन बच्चों में मुझे इसी उम्र में ऐसे लक्षण दिखे जो निश्चित रूप से अपराध की दिशा की ओर बोध, संकेत करते हैं।
बहुत करीब से समझने की कोशिश करने पर पता चला कि उन्हें उन दिशाओं की ओर जाने से रोकने वाला, सही या गलत बताने वाला या किसी रचनात्मक काम में उलझाए रखने वाला या उनका सजग सहज मनोरंजन कटने वस्ल कोई है ही नहीं।
वे नए रेखियाते युवक यदि कुछ नया अच्छा करना भी चाहे तो कोई प्रेरणा नहीं, कोई अनुकूलता ही नहीं, और गलत करने पर कोई निषेध, विरोध, प्रतिबन्ध नहीं।
परम् स्वतंत्र न सिर पर कोउ, ऐसी स्थिति में ग्रामीण युवकों में एक निराश ब्याप्त हो ही जातो है।
ग्रामीण स्त्रियाँ या तो गम्भीर रूप से बीमार है और उनकी बीमारी का कोरे ध्यान तक करने वाला नहीं है। ग्रामीण स्त्रियाँ कठोरतम शारीरिक परिश्रम करती रहती है।वह भी लगभग बिना खाये पीये। ग्रामीण स्त्रियों के दो रूप होते हैं। अवकाश के क्षणों में पड़ोसियों से लड़ाई,दूसरा लगातार प्रजनन। ग्रामीण स्त्रियाँ लगातार पुरुषों के स्वाभाविक मनोरंजन की साधन होती है।
वैसे यह स्थिति शहरों मरण भी कमोबेश ऐसी ही है, प्रकार भेद के साथ। ग्रामीण परिवेश में मनोरंजन के साधन बहुत कम है, स्त्रियोचित मनोरंजन ज्ञान के साधन तो है ही नहीं।
भारतीय ग्रामीण परिवेश में स्त्रियों में नीरस निराशा का भाव अधिक प्रखर है। उन्हें न तो कोई सुरक्षा देता, न सम्मान, न प्रेरणा, न निषेध, न सहानुभूति। ये अपने परिवेश में तमाम प्रकार की हिंसा का लगातार शिकार होते रहती है। मैंने तमाम प्रकार की हिंसा शब्द का सजग प्रयोग विशेष कर किया है।
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