गाँवों में बहुतों के पास अपना रहने का घर तो पीढ़ियों से होता ही है। अनाज, मछली आदि खेत, तालाब, नदी से प्राप्त हो जाते हैं। खेत अपना अर्थात पूर्वजों का हो तो अनाज दूसरों के परिश्रम से प्राप्त हो जायेगया और खेत अपना नहीं है तो अपने परिश्रम से प्राप्त हो जायेगा। रही बात कपड़े की तो कौन रोज रोज मेला ही घूमना है।
हो गया, रोटी-कपड़ा-मकान का निदान।
शेष बचे समय में क्या करना है, क्या हो सकता है, कैसे करना है,, भारतीय ग्रामीण परिवेश में इसका कोई सोच ही नहीं है।
मैंने 40-45 सालों से ग्रामीण परिवेश में किशोरों को गाँवों में पेड़ों के नीचे या तो ताश खेलते या गांजा पीते देखा, खैनी तो बड़ी सहज वृत्ति देखी।
हो गया, रोटी-कपड़ा-मकान का निदान।
शेष बचे समय में क्या करना है, क्या हो सकता है, कैसे करना है,, भारतीय ग्रामीण परिवेश में इसका कोई सोच ही नहीं है।
मैंने 40-45 सालों से ग्रामीण परिवेश में किशोरों को गाँवों में पेड़ों के नीचे या तो ताश खेलते या गांजा पीते देखा, खैनी तो बड़ी सहज वृत्ति देखी।
No comments:
Post a Comment