Monday, 27 August 2018

ब्यापक सोच, दृष्टि, चिंतन एक दिन की चीज नहीं है। यह एक दिन में पैदा भी नहीं हो पाती। इसमे एक अतिरिक्त तीखापन, पैनापन, धार होती है जो अतरिक्त तप बल घर्षण से ही हासिल हो सकता है।
समग्र उपलब्ध पटल को एक साथ एक बार में देखना, समझना और उसके अनन्त आयाम के बारे में वास्तविक तर्कसंगत निष्कर्ष निकाल सब के सामने रख देना, उन्हें समझ देना और उनको सहमति के विंदु तक ले आना सहज कार्य नहीं है।
सारा समाज, विभिन्न सामाजिक आकांक्षाऐं सम्प्रति घनघोर विरोधाभाषों से पटी पड़ी है, परस्पर संघर्षरत है। अधिकांश हिस्सा आवृत है, अनजान है, अनदेखा है, अदृश्य है, जतन पूर्वक छिपाया गया है। उसको देखना, देखने की इच्छा रखना, देखने का प्रयास करना भी एक दुर्दान्त दुस्साहस है, तमाम अनिष्टकारी सम्भववनाओं से भरा है, भयंकर विरोध, गतिरोध को खुला आमंत्रण है, हिंसा-प्रतिकार बल को बुलावा है, आत्मोत्सर्ग की तैयारी की घोषणा है।
अब इतने के बाद सफलता की कामना दुर्जेय महत्वाकांक्षा ही है। इसके लिए अनन्त प्रयास, सर्वकालिक सर्वतोमुखी प्रयास करना ही होगा।
यह सभी के चिंतन तक में नहीं आ पाता। कर्तब्य पथ तो बहुत दूर की बात है।
पर कभी कभी, कोई किसी प्रकार ऐसा कर जाते है।
वे ही युगपुरुष, दूरदृष्टा कहलाते है ।

No comments:

Post a Comment