Thursday, 8 January 2015

मैं कवि हूँ तो सही  पर कवि  भर होना नहीं चाहता
नहीं चाहता कोई मेरे बच्चे को रोटी दिखा नाचे
चंद माला , एक दुशाला और कलम का बड़ा बाजार
मैं आहें भरूँ ,तुम्हारी आह-वाह से पेट नहीं भरता
मैं तुम्हारी नायिका के नख-शिख गान गाता फीरूं
तुम्हारी क्रीडा-कलाओं  को देख उनका वर्णन करूं
मैं कवि रहना नहीं चाहता ,यद्यपि कविता प्रिय है
मैं केवल कवि मरना नहीं चाहता ,प्रकाशक मारेगा
पाठक- श्रोता ,आह या वाह के सिवा कुछ भी नहीं
बाकी सब तो मेरी कलम के कपड़े उतारते रहते है
कलम को भाट बना दूँ या कोठे पहुंचा दूँ,यह कैसे ?
तुम्हारे दरवाजे अपनी कलम पहुंचा दूँ , नहीं ! नही!
बस इसी लिये कहता हूँ ,कवि नहीं रहना चाहता हूँ
और इसीलिये मैं तुम्हारा कवि नहीं मरना चाहता हूँ
मेरी कविता मुझे प्रिय है ,मेरी कलम सुहागन ही है
मैं मेरी कविता का सिन्दूर ,मैं मेरे कलम की बिंदी
हिंदी के पाठक तुम सोचो , क्या अब करेगी हिंदी .

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