सार्वजनिक निन्दा से बचने का सत्प्रयास तो कर ही सकता हूँ .बस इसके लिये अपने ही स्वार्थ को त्यागना पड़ेगा.
अपने ही मन की ही करूंगा ,केवल अपने ही हित का ही करूंगा - मुझे तुमसे और तुम्हारे से विरोध भी करना पड़े तो भी मैं जो मन में आया जो जब पसंद आया वह ही करूंगा ---यह आचरण सार्वजनिक निन्दा की पात्रता पैदा करता है .
स्वेच्छाचारी होने से बचे. यह आरोप निन्दा का समुचित कारण है
अपने ही मन की ही करूंगा ,केवल अपने ही हित का ही करूंगा - मुझे तुमसे और तुम्हारे से विरोध भी करना पड़े तो भी मैं जो मन में आया जो जब पसंद आया वह ही करूंगा ---यह आचरण सार्वजनिक निन्दा की पात्रता पैदा करता है .
स्वेच्छाचारी होने से बचे. यह आरोप निन्दा का समुचित कारण है
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