यात्रा कितनी भी लम्बी क्यों न हो, यात्रा का एक विवरण तो होगा ही। यात्रा चल कर तय की जाती है, उसे जीया जाता है, उसे भोगा जाता है, यात्रा एक अनुभव है । य़ात्रा के साथ आपका पसीना बहा होता है, धूप सहा आपका बदन, बरसात भींगा शरीर, खट्टे-मीठे अनुभव सब कुछ आपका अपना हो चुका होता है । यह सब कुछ आपके साथ इस प्रकार जुड़ चुका होता है कि यात्रा के बाद यह सब कुछ आपका अपना होता है।
अब यह आप पर निर्भर है कि आप इसे बाँटने को तैयार है या नहीं, यह है तो आपका, कोई भी आपको इसे सार्वजनिक करने को बाध्य तो कर नहीं सकता। अपने नितान्त व्यक्तिगत चित्र , चरित्र , व्यक्तित्व या अनुभव के साथ आप कैसे जीना चाहते हैं, उसके साथ आपका क्या संबंध होगा- इसका निर्णय स्वयं आपको ही करना है।
इसे छिपा कर जीने की कोशिश करना सहज है, मैं नहीं कह सकता आप इसमे कितने सफल होंगें।अधिकांश इसी तरह जीना चाहते हैं, कोशिश भी करते हैं, पर अक्सर यह कोशिश असफल होती रही है। पर भ्रम यही बना रहता है कि निजता अक्ष्क्षुण है। अब यह टूट भी चुकी हो तो कोई आपको कहने तो आयेगा नहीं, यदि कहेगा भी तो कम से कम आपके मुँह पर आपको तो कहेगा नहीं ।वैसे इतिहास गवाह है, कुछ भी छिपा नहीं रहता, देर सबेर सब कुछ सामने आ ही जाता है , हाँ, आपका भ्रम तब तक बना रहता है जब तक सब कुछ सर चढ़ कर बोलने न लगे। पर तब तक शायद बहुत देर हो गई होती है।
य़ात्रा आपकी है, इसका हर कदम आपने खुद चला है, जाने या अनजाने। कुछ कदम उत्साह से चले गये, कुछ अन्यमनस्क भाव से, कुछ डरते हुए, कुछ अनजाने में, कुछ मजबूरियों में, आपका अहं, प्रमाद, बुद्धि, विवेक, अग्यान सब कुछ आपका अपना है, ओर चले गये हर कदम आपके अपने, उनका फलाफल भी आपका ही होगा।
आप अपनी यात्रा के विवरण को सार्वजनिक भी कर सकते हैं, पर यह है कठिन ।पर एक बार खुली किताब की तरह खुल गये, खुलने की आदत जो लग गयी तो आप वह कर ले जायेंगें जो होना ही है, और फिर श्रैय सारा आपका। आपका खुला व्यक्तित्व सभी जगह सर चढ़ कर बोलेगा- बस थोड़ा समय लगेगा ।
चलते तो सभी है,अंदाज़ चलने का अपना अपना । कुछ खुल कर चलते हैं ,चलने के बाद भी खुले रहते हैं, निःसंकोच चलते हैं- उन्हें डर नहीं व्यापता। वे आत्मविश्वास के सहारे चलते हैं - कठिन समय में भी विवेक के सहारे चलते हैं , मजबूर होने पर भी अपना रास्ता नहीं बदलते और अधीर नहीं होते। ऐसे लोग बेलाग चलते हैं, खुल कर चलते हैं, चलने के बाद और खुलते हैंं ।
चलने में ठोकर किसको नहीं लगती, कौन नहीं फिसला, ठोकरों से न भय न ही प्रेम। य़े तो यात्रा के ही अंग है। हाँ,
ठोकर, फिसलन यही तो यात्रा का वह अंश है, जो सिखाता है,अनुभव देता है, यात्री को माँजता है, चमकाता है, और यही यात्रा का वह अंश है जो मैने आपको सार्वजनिक करने को कहा है। एक यात्री इसी भोगे हुए अंश को सार्वजनिक कर कर ही अपनी यात्रा को सफल बना पाता है।
यह भी कोई यात्रा हुई, खुद चले, चल कर बैठ गये, न किसी से कुछ लिया न अब किसी को कुछ देने लायक आपके पास है, और अब न हीं किसी को कुछ देंगें आप- है ही नहीं कुछ तो देंगें क्या, ओर यदि कुछ है भी तो साहस कहाँ है वह सब कुछ बाँट डालने का। डर गये कि बाँट दूँगा तो खाली हो जाउँगा- यही न।
चलना वही जो खुली आँखों से चला गया- होश में चलना ही सार्थक यात्रा है। यात्रा के बाद सबको चला हुआ सार्वजनिक कर देना यात्री का दायित्व है।
यात्रा टोक्यो की हो या लेनिनग्राड की,फाह्यान या ह्वेनसांग की हो या अल बरुनी या साक्ऋत्यायन की , वैसे कोलम्बस, मैगलेन, कुक, वास्कोडिगामा ने भी यात्रायें की, यात्रा विवेकानन्द ने भी की, शंकराचार्य की यात्रा प्रसिद्ध हुई। कुछ ने देखा, कुछ, कुछ खोज गये - दुनिया को कुछ दिखा गये , किसी ने देखा, समझा और सब को बता गये।
य़ात्रा ईशा, राम, क्ऋष्ण,बुद्ध, महावीर,मोहम्मद् सभी ने की। बिना यात्रा शायद जीवन अधूरा ही रह जाता है।
आगे चालू है--------
अब यह आप पर निर्भर है कि आप इसे बाँटने को तैयार है या नहीं, यह है तो आपका, कोई भी आपको इसे सार्वजनिक करने को बाध्य तो कर नहीं सकता। अपने नितान्त व्यक्तिगत चित्र , चरित्र , व्यक्तित्व या अनुभव के साथ आप कैसे जीना चाहते हैं, उसके साथ आपका क्या संबंध होगा- इसका निर्णय स्वयं आपको ही करना है।
इसे छिपा कर जीने की कोशिश करना सहज है, मैं नहीं कह सकता आप इसमे कितने सफल होंगें।अधिकांश इसी तरह जीना चाहते हैं, कोशिश भी करते हैं, पर अक्सर यह कोशिश असफल होती रही है। पर भ्रम यही बना रहता है कि निजता अक्ष्क्षुण है। अब यह टूट भी चुकी हो तो कोई आपको कहने तो आयेगा नहीं, यदि कहेगा भी तो कम से कम आपके मुँह पर आपको तो कहेगा नहीं ।वैसे इतिहास गवाह है, कुछ भी छिपा नहीं रहता, देर सबेर सब कुछ सामने आ ही जाता है , हाँ, आपका भ्रम तब तक बना रहता है जब तक सब कुछ सर चढ़ कर बोलने न लगे। पर तब तक शायद बहुत देर हो गई होती है।
य़ात्रा आपकी है, इसका हर कदम आपने खुद चला है, जाने या अनजाने। कुछ कदम उत्साह से चले गये, कुछ अन्यमनस्क भाव से, कुछ डरते हुए, कुछ अनजाने में, कुछ मजबूरियों में, आपका अहं, प्रमाद, बुद्धि, विवेक, अग्यान सब कुछ आपका अपना है, ओर चले गये हर कदम आपके अपने, उनका फलाफल भी आपका ही होगा।
आप अपनी यात्रा के विवरण को सार्वजनिक भी कर सकते हैं, पर यह है कठिन ।पर एक बार खुली किताब की तरह खुल गये, खुलने की आदत जो लग गयी तो आप वह कर ले जायेंगें जो होना ही है, और फिर श्रैय सारा आपका। आपका खुला व्यक्तित्व सभी जगह सर चढ़ कर बोलेगा- बस थोड़ा समय लगेगा ।
चलते तो सभी है,अंदाज़ चलने का अपना अपना । कुछ खुल कर चलते हैं ,चलने के बाद भी खुले रहते हैं, निःसंकोच चलते हैं- उन्हें डर नहीं व्यापता। वे आत्मविश्वास के सहारे चलते हैं - कठिन समय में भी विवेक के सहारे चलते हैं , मजबूर होने पर भी अपना रास्ता नहीं बदलते और अधीर नहीं होते। ऐसे लोग बेलाग चलते हैं, खुल कर चलते हैं, चलने के बाद और खुलते हैंं ।
चलने में ठोकर किसको नहीं लगती, कौन नहीं फिसला, ठोकरों से न भय न ही प्रेम। य़े तो यात्रा के ही अंग है। हाँ,
ठोकर, फिसलन यही तो यात्रा का वह अंश है, जो सिखाता है,अनुभव देता है, यात्री को माँजता है, चमकाता है, और यही यात्रा का वह अंश है जो मैने आपको सार्वजनिक करने को कहा है। एक यात्री इसी भोगे हुए अंश को सार्वजनिक कर कर ही अपनी यात्रा को सफल बना पाता है।
यह भी कोई यात्रा हुई, खुद चले, चल कर बैठ गये, न किसी से कुछ लिया न अब किसी को कुछ देने लायक आपके पास है, और अब न हीं किसी को कुछ देंगें आप- है ही नहीं कुछ तो देंगें क्या, ओर यदि कुछ है भी तो साहस कहाँ है वह सब कुछ बाँट डालने का। डर गये कि बाँट दूँगा तो खाली हो जाउँगा- यही न।
चलना वही जो खुली आँखों से चला गया- होश में चलना ही सार्थक यात्रा है। यात्रा के बाद सबको चला हुआ सार्वजनिक कर देना यात्री का दायित्व है।
यात्रा टोक्यो की हो या लेनिनग्राड की,फाह्यान या ह्वेनसांग की हो या अल बरुनी या साक्ऋत्यायन की , वैसे कोलम्बस, मैगलेन, कुक, वास्कोडिगामा ने भी यात्रायें की, यात्रा विवेकानन्द ने भी की, शंकराचार्य की यात्रा प्रसिद्ध हुई। कुछ ने देखा, कुछ, कुछ खोज गये - दुनिया को कुछ दिखा गये , किसी ने देखा, समझा और सब को बता गये।
य़ात्रा ईशा, राम, क्ऋष्ण,बुद्ध, महावीर,मोहम्मद् सभी ने की। बिना यात्रा शायद जीवन अधूरा ही रह जाता है।
आगे चालू है--------
dats y ....being extrovert is a quality not possessed by everyone.
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