सन् १९६३-६३ की बातें याद है।वैसे मेरा जन्म हुआ १९५६ में,कलकत्ता में, कहते हें, बौल कि अस्पताल मे बताते हैं १९ मार्च सांय ६बजे। मेरे दादा जी अपने चार पुत्रों के परिवार साथ मछुआ बाजार मे बांगड़ बिल्डिंग के पीचे श्री दिगम्बर जैन शिक्षालय के बगल वाले मकान के तीसरे तल्ले पर चार भाड़े के कमरे में रहते थे, यह दो बड़े चौकों वाली बिल्डिंग थी, हम लोग पीछे के कमरों मे रहते थे। मेरे पिता जी अपने चार भाईयों में दूसरे नम्बर पर थे। उनसे छोटी तीन बहनें और दो भाई थे। मैं खुद अपने पिता की दूसरी संतान- वैसे तीसरी पर मेरे पहले मेरे पिता की एक संतान खराब हो गई थी।
मेरे दादा शायद जूट ऐन्ड हैसीयन ऐक्स्चैन्ज में ब्रोकर थे। वे शायद बूलियन में भी डील करते थे।मैंने उन्हें शेयर मार्केट मे काम करते सुना है। वे ईन सभी में फाटका बाजार में भी रूचि लेते थे।
मेरे पिताजी भी उन्हीं के साथ काम करते थे।कैनिंग स्ट्रीट क्लाईव रो नुक्कड़ पर उनकी औफिस थी, बाकायदा फर्म थी। उन दिनों भी वे इन्कम टैक्स असेसी थे। अब समझ में आता है, एकाधिक रिटर्न दाखिल किये जाते थे।
मै शुरूआती दौर में घर के बगलवाली स्कूल में पढ़ने गया। संभवतः दो साल बाद मेरा नाम श्री डीडू माहेश्वरी विद्यालय में लिखवाया गया। आज साफ याद है, मैं बड़ा उत्पाती था, अपने माता पिता के लिये एक आम बालक से अधिक परेशानी का कारण। आज जब मैं खुद जवान बेटे का बाप बन चुका हूँ, दो चार साल में दादा भी बन जाउँगा- पर सोचता हूँ, मेरे जैसे उत्पाती को पालने में मेरी माँ को क्या परेशानी हुई होगी।
खैर,मेरी बचपन से चली आ रही नादान त्रुटियाँ अब अधेड़ हो चुकी गलतियों में बदल चुकी है, बचपन का उत्पात् कभी सकारात्मक तीब्रता, प्रतिरोध, द्ऋढ़ता, प्रतिबद्धता में, तो कभी मेरे अड़ियल अव्यवहारिक मान लिये जाने वाले प्रतिकार, दिखाई दे देने वाले क्रोध अथवा प्रकट होने वाली निराशा में आज भी यथावत् है।
सच है, व्यक्ति का मूल स्वभाव अन्त तक नहीं बदलता। आयाम बदलते है, काल क्रम में उनकी व्याख्याँए बदल ही जाती है, तब भी मूल यथा रूप रह ही जाता है। सयाने इन्हीं संकेतों को समझ कर भूत- भविष्य का अनुमान लगा लेते हैं ।
मेरी माँ बिहार के एक कस्बे के साधारण व्यापारी की ग्रामीण परिवेश में पली बढ़ी कम पढ़ी बेटी थी। मेरे ननिहाल के लोग क्ऋषि से अच्छे खासे जुड़े थे। शायद राजनैतिक रूप से भी सजग थे। उन लोगों के स्वभाव में अक्खड़पन या खुलापन अधिक था।
वैसे अपने ददिहाल या ननिहाल, दोनो ही परिवारों को मैंनें कभी सामाजिक सरोकारों के प्रति बैचैन होते नहीं देखा।
कम बेसी आज भी यही स्थिति है,शायद मैं स्पष्ट अपवाद हूँ।
मैं सामाजिक जीवन के बिना नहीं रह सकता । मुझे पार्टी, पिकनिक,नाच-गाना, उछल-कूद, खाने-पीने-पिलाने वाले सामाजिक जीवन के आयाम आकर्षित नहीं करते।
पढ़ना-पढ़ाना, लिखना-लिखाना, सिखना-सिखाना, एक दूसरे के साथ आगे बढ़ना, अपनापन बाँटना-बँटवाना, अपने पर हँसना-हँसवाना, सपनों की चादर समुह के सामुहिक प्रयास से बुनना-बुनवाना, गले लगना-लगवाना (गले पड़ना-पड़वाना नहीं-तौबा-तौबा), और सबसे अधिक समुह में रोना- रूदन बाँटना-सामाजिक रूदन का कम करने का अपने सारे सामर्थ्य़ से प्रयास करना- बिना किसी की प्रतीक्षा किये- यदि जरूरत पड़े तो खुद अपनी उपेक्षा कर कर भी , यही वह सामाजिक जीवन है जिसके बिना मैं नहीं रह सकता। इस जीवन की खोज में प्राप्त होने वाले अपमान को पी लेना,थोड़ा कड़ुवा जरूर लगता रहा, पर मैं ढीठ की तरह उसे पीता रहता हूँ, और इस अपमान ने हर बार एक नया संकल्प, एक नयी भूख पैदा की।
दूसरे सामाजिक जीवन जिसे मैं आँटे में नमक की तरह ही जीवन भर स्वीकार कर सका, उसकी अधिकता या समाज नें प्रचलित मात्रा ही मुझे इस प्रकार अरुचिकर लगती रही कि कई बार मैं उसका प्रतिकार करने करने तक के शालीन स्वरुप को भूल जाता हूँ जिसका खामियाज़ा मुझे एकाधिक बार भुगतना पड़ा।
आज समझ पा रहा हूँ, प्रचलित मान्यता या उच्च
द्ऋ
खैर,मेरी बचपन से चली आ रही नादान त्रुटियाँ अब अधेड़ हो चुकी गलतियों में बदल चुकी है, बचपन का उत्पात् कभी सकारात्मक तीब्रता, प्रतिरोध, द्ऋढ़ता, प्रतिबद्धता में, तो कभी मेरे अड़ियल अव्यवहारिक मान लिये जाने वाले प्रतिकार, दिखाई दे देने वाले क्रोध अथवा प्रकट होने वाली निराशा में आज भी यथावत् है।
सच है, व्यक्ति का मूल स्वभाव अन्त तक नहीं बदलता। आयाम बदलते है, काल क्रम में उनकी व्याख्याँए बदल ही जाती है, तब भी मूल यथा रूप रह ही जाता है। सयाने इन्हीं संकेतों को समझ कर भूत- भविष्य का अनुमान लगा लेते हैं ।
मेरी माँ बिहार के एक कस्बे के साधारण व्यापारी की ग्रामीण परिवेश में पली बढ़ी कम पढ़ी बेटी थी। मेरे ननिहाल के लोग क्ऋषि से अच्छे खासे जुड़े थे। शायद राजनैतिक रूप से भी सजग थे। उन लोगों के स्वभाव में अक्खड़पन या खुलापन अधिक था।
वैसे अपने ददिहाल या ननिहाल, दोनो ही परिवारों को मैंनें कभी सामाजिक सरोकारों के प्रति बैचैन होते नहीं देखा।
कम बेसी आज भी यही स्थिति है,शायद मैं स्पष्ट अपवाद हूँ।
मैं सामाजिक जीवन के बिना नहीं रह सकता । मुझे पार्टी, पिकनिक,नाच-गाना, उछल-कूद, खाने-पीने-पिलाने वाले सामाजिक जीवन के आयाम आकर्षित नहीं करते।
पढ़ना-पढ़ाना, लिखना-लिखाना, सिखना-सिखाना, एक दूसरे के साथ आगे बढ़ना, अपनापन बाँटना-बँटवाना, अपने पर हँसना-हँसवाना, सपनों की चादर समुह के सामुहिक प्रयास से बुनना-बुनवाना, गले लगना-लगवाना (गले पड़ना-पड़वाना नहीं-तौबा-तौबा), और सबसे अधिक समुह में रोना- रूदन बाँटना-सामाजिक रूदन का कम करने का अपने सारे सामर्थ्य़ से प्रयास करना- बिना किसी की प्रतीक्षा किये- यदि जरूरत पड़े तो खुद अपनी उपेक्षा कर कर भी , यही वह सामाजिक जीवन है जिसके बिना मैं नहीं रह सकता। इस जीवन की खोज में प्राप्त होने वाले अपमान को पी लेना,थोड़ा कड़ुवा जरूर लगता रहा, पर मैं ढीठ की तरह उसे पीता रहता हूँ, और इस अपमान ने हर बार एक नया संकल्प, एक नयी भूख पैदा की।
दूसरे सामाजिक जीवन जिसे मैं आँटे में नमक की तरह ही जीवन भर स्वीकार कर सका, उसकी अधिकता या समाज नें प्रचलित मात्रा ही मुझे इस प्रकार अरुचिकर लगती रही कि कई बार मैं उसका प्रतिकार करने करने तक के शालीन स्वरुप को भूल जाता हूँ जिसका खामियाज़ा मुझे एकाधिक बार भुगतना पड़ा।
आज समझ पा रहा हूँ, प्रचलित मान्यता या उच्च
द्ऋ
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