Monday, 1 December 2014

सर पर न छत थी , न पास खर ,
न टोपी थी ,न लंगोटी न मीरजई।

एक चटाई भर जमीन का टुकड़ा
एक सपना था जो कभी न आया।

बबूल के पतों से भूख  मिटाई थी
नहीँ  याद ,प्यास कैसे मिटाई थी।

गंगारद नमकीन पानी में उबलते
चबाते हुए दिन भर बीत जाता था।

खुले आसमान के नीचे दिन कटता
रात अँधेरी,आपस में चिपक कटता।

भूख तो हर वक्त लगी ही रहती थी
प्यास लगती तो मुंह कहीं लगा देते।

नहाने भर न पानी था न उतना लूर
न छूने का होश न धोने का था शऊर। 

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