Monday, 1 December 2014

मेरे पिताजी ने कलकत्ते से हटने के बाद बड़े ही कठिन असाध्य साधनों का संग्रह कर मेरा दाखिला एक कस्बाई कालेज में करवाया था.
कालिज में पढने लायक जैसा कुछ भी नहीं था-न शिक्षक - न विद्यर्थी - न सिलेबस - न पुस्तकें - न परीक्षा - न वातावरण - न मूल्य मेरे पास।
आज लगता है ;शायद कालेज जाने लायक साधन भी नहीं थे।
न समय , न किताबों के लिए साधन ,न कालेज जाने लायक कपड़े .शक्ति का भी शायद आभाव था।
नानिहाली दुकान पर कपड़ा बेचा करता था।  शेष बचे समय में शायद क्षुद्र टियूशन  टाईप की चीज करता था। कभी कभार नानिहाली दुकान के काम से पटना आना जान पड़ता था। खरीदारी करने के लिये जाता था। आने जाने के खर्च के लिए गिन कर कुछ पैसे मिलते थे। कुछ तो युवा मन था। कुछ कभी कभार किताब या पत्रिका खरीदने का मन करता था। साधन थे नहीं।  ऐसे में अँधेरा रहते ही साढ़े तीन या चार रूपये में पटना स्टेसन के सामने ५० अख़बार खरीदता और पौ  फूटने के पहले उसे बेच लेना स्वावलम्बी होने का एक विकल्प दीखता था। यह काम मैंने दस बीस  बार तो अवश्य ही किया हॉगा .
इस दौरान भयंकर संघर्ष था .
मेरे दादा जी अत्यंत अपमानजनक स्थिति में कलकत्ता छोड़ अपने सबसे छोटे कुवारे बेटे को ले कर विशाखापट्नम जाने को विवश हुए .मेरी दादी का स्वर्गवास तो १९६५ में ही हो चूका था .
मेरे ददाजी का स्वर्गवास १९७६ में हुआ .
उसी समय मैनें बी काम की परीक्षा दी थी .
उसी समय मैनें छिपते छिपाते कुछ किताबे खरीदी .इसी बीच मैंने रांची विश्वविद्यालय में रांची में पढने वाले कुछ विद्यार्थियों से मित्रवत स्नेह पाया.
इस दौरान अर्थशास्त्र मेरा प्रिय विषय था. जानूं की तरह उस बीस-इक्कीस वर्ष की उम्र में मैं लगा रहता था .उसी क्रम में कुछ इकोनोमिक्स के जानकारों के सम्पर्क में आया .उसी खोज में चुपके चुपके मैं दिल्ली , कलकत्ता ,बनारस , इलाहबाद भी गया .
आज लगभग चालीस साल बाद मुझे उस समय का अत्यंत तेज गति से चल रहा क्रिया कलाप याद तो आता है .पर कोशिश करने पर भी मैं उन लोगों का चेहरा या नाम स्मरण नहीं कर पा रहा हूँ जिन्होंने उस दौर में मुझे समर्थन दिया था या निंदा की थी या जिनके संपर्क में मैं आया था .
यह याद करने का प्रयास मै २००३,२००४ , २००५ में भी कर चूका हूँ . असफल रहा हूँ .
कई बार बीच में भी किया -पर असफल रहा .
वस्तुतः मई - जून १९७६से लेकर सितम्बर ७७ तक का मेरा जीवन अत्यंत चंचल जीवन था.
७४-७५ के दिनों में कभी आर एस एस वालों के साथ मीटिंग या कभी कम्युनिस्टों द्वारा मुझे अपनी और खींचने का प्रयास . यु धींगा मस्ती -खींच-तान का समय था .अत्यंत अनिश्चिंतता का समय था . कुछ सूझ नही रहा था , साधन थे नहीं ,पर कुछ करने का जानूं था -पागल पन  ही था ..मेरा जम कर उपहास उदय गया . सब विधि अपमानित किया गया .कुछ लोगो ने स्नेह भी दिया .खूब टंगड़ी खींची गई .
इस दौरान मैं फ्लेयर पहना करता था .कंधे तक के मेरे बाल थे . कुत्ते के कान की तरह की कलर , छींटदार शर्ट . वैसे कपड़े उस समय कस्बे में कम ही प्रचालन में थे .मैंने छाती से नीचे तक की दाढ़ी बाधा राखी थी .स्वयम को महान फिलोस्फर समझता था . कहीं से एक सुनहली कमानी का चस्मा भी था. कुछ भी पढने के लिए मिल जाये - पढ़ लेना- पढ़ते रहना .किसी भी कीमत पर बड़े -यशस्वी लोगो के साथ, अधिकारितो के साथ , प्रोफेसर के साथ उठना बैठना ,उस वक्त के डी एम् , एस डी ओ , सेकेण्ड अफसर, आदि से हठ कर मैंने परिचय प्राप्त किया था . इस क्रम में कई बार अपमानित भी हुआ.
 वह दौर था जब मेरा आत्म विस्वास फौलादी हुआ करता था-बड़े सपने देखना- किसी को भी किसी भी विषय में चैलेन्ज कर देना --- पर उसका कोई आधार नहीं था- यह आज समझ में आता है - शायद यह दुस्साहस ही था --जो भी था अकारण था , अंदर से था .
इतने मूर्धन्य सपनों के साथ उस समय मैं कैसे जीवित बचा होऊंगा- मेरा मानसिक संतुलन बस  ने ही संभाला था .

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