सम्पूर्ण समर्पण केवल स्वार्थी कर पाते हैं
केवल श्रद्धा के भरोसे न यह हो पाता है ,न किया ,न कराया जा सकता है .
स्वार्थी श्रद्धा ही प्रेम है ,केवल श्रद्धा में दोनों का स्वाभिमान बचा रहता ही है
स्वार्थी श्रद्धा में एक पक्ष अपनी स्वार्थ की पूर्ति के लिये स्वयं को दुसरे के पुर्णतः हवाले कर देता
है
केवल श्रद्धा के भरोसे न यह हो पाता है ,न किया ,न कराया जा सकता है .
स्वार्थी श्रद्धा ही प्रेम है ,केवल श्रद्धा में दोनों का स्वाभिमान बचा रहता ही है
स्वार्थी श्रद्धा में एक पक्ष अपनी स्वार्थ की पूर्ति के लिये स्वयं को दुसरे के पुर्णतः हवाले कर देता
है
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