Saturday, 30 May 2015

घर से  बेघर हुआ क्या भोगता है
एक अदद घर के बिना क्या लगता है
उनके घर ,महल , विल्ला तो क्या
फूस का छप्पर भी चिढ़ाता ही है
वे न बोलते , न हँसते , न ख़ुशी
यह सब कैसा कैसा लगता है
सब कुछ है ऐसा दिखता  तो है
पर अपना  कोई नहीं दिखता
कुछ भी अपना नहीं दिखता , क्यों।
बरसो हुए  चलता रहा , कहाँ चला
कदम उठे ही कब , किस ओर उठते।
कदमों में तो एहसास ही नहीं था

आज पता चला , घर ही न था
किधर , क्यों , कैसे चला जाता
चला जाता तो क्या जा पाता !
आखिर दरवाजा कौन खोलता !

बेघर बीत  गयी जिंदगी यायावर तेरी
हर रास्ते को ही घर बना डाला 

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