Tuesday, 2 December 2014

सोते सोते जग कर कविता लिखी जाती है
जगते जगते सो कर कविता लिखा जाती है
आग में जब समन्दर, बस कविता आ जाती है
समन्दर की आग ही तो है , जो कविता छा जाती है

आज कल भाड़े पर भी कविता  लिखाई जाती है
बुटिक में बनी कंविता ,बहु-विध सजाई जाती है
शब्द -इम्पोर्टेड या उधर के , पहले जुटाये जाते है
बाजार का खास ख्याल ,पब्लिसिटी स्टंट जायज है .

कवि-कविता मैनेजर ,सब की एक न एक जात है
बाजार , ब्यापार , व्यापारी , इनकी भी तो पांत है
किताब,मंच ,पत्रिका ,पाठ ,परसेंटेज पहले तय है
और कोई सेवा कर सको तो प्राथमिकता तय है .

दो अर्थ वालों की मांग अधिक ,एक वाली व्यर्थ है
ए सर्टिफिकेट योग्य खुली कविता सबसे समर्थ है  

साफ सुथरी कविता,इसको पिंगल शास्त्री नोचेंगे
भाषण जैसी बेचारी ,यह कविता है !चल सोचेंगे

कुछ तड़का लगाओ ,भडकाओ , अब यही चलेगा
नीति-शतक नही ,अनीति गाओ ,अब यही फलेगा

तुम्हारे आंवले ,आम शीशम के लिये कौन बैठेगा
चट कद्दू लगाओ, फल तैयार, झट ये सब बेचेगा . Perhaps Quoted

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