शुशून्य
पर जनमने पर समाज की सौगात से
शिखर पुरुष कब परिचित होते
है,शिखर
पुरूषों का शून्य-पुत्र
के लिये यही ब्यवहार है !
शुन्य
से चला यात्री चलता तो है पे
डरता है कि शिखर -पुरुष
कब उसकी लंगोटी ,
उसके
पसीने की कमाई आधी रोटी और
दिन भर की कड़ी मिहनत के बाद
की थकान के बाद आने वाली नींद
भी निलाम न कर डाले ,
मजबूरी,
बेबसी,
आँसू
,
भूख
,
देह-
यष्टि
तो सरे-राह
बेचते ही रहते हैं.
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