Saturday, 21 November 2015

शुशून्य पर जनमने पर समाज की सौगात से शिखर पुरुष कब परिचित होते है,शिखर पुरूषों का शून्य-पुत्र के लिये यही ब्यवहार है !
शुन्य से चला यात्री चलता तो है पे डरता है कि शिखर -पुरुष कब उसकी लंगोटी , उसके पसीने की कमाई आधी रोटी  और दिन भर की कड़ी मिहनत के बाद की थकान के बाद आने वाली नींद भी निलाम न कर डाले , मजबूरी, बेबसी, आँसू , भूख , देह- यष्टि तो सरे-राह बेचते ही रहते हैं.   

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