Sunday, 28 May 2017

कभी कभी बस मन इतना करता है,अपनों के साथ सरे आम खड़े हो रहने का ,
अपनों का कुछ हक तो पहले भी होता था ,मैं ही उदार होने की कोशिश करता था
कौन सही है या कौन गलत , यह फैसला तो फिर कभी ,अभी अपनों के साथ।
पराये तो पराये ही थे , हैं , रहेंगें कहीं उनके चक्कर में  अपने भी छूट गये तो।

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