कबूलनामा
बोरे में बन्द नदियों को सर पर लादे फिरती दादी माँ
मेरे बचपन के सपने सारे ई आक्सन होने मॉल चले
बच्चों ,आओ दादी को सहारा दो और बोली लगाओ
नदियाँ और सपनीला बचपन की बस तस्वीर दिखेगी।
कस कर बंद कर लो मुट्ठी हवा वाली , कोई खोले नहीं
चाँद,सूरज को अपनी आँखों में बन्द करो, दिखे नहीं
तुम्हारा बचपन तो बचा नहीं सके , तुम जवान ही हुए
तुम्हारी हवा , चाँद और सूरज पर डाका पड़ेगा अब।
तुम्हारी मजबूरियों , खूब नुमाइश की , तिजारत की है
तस्वीरें तुम्हारी , तुम्हारे देह की , तुम्हारे बचपन की
जिन्दे की , मरते की , हँसते की , तुम्हारे यौवन की
बहुत बेचीं है हमने , आई अब तुम्हे बेचने की बारी है।
अब भी वक्त है , हमसे बचा सको तो बचा, इज्जत
वरना हम तो भेड़िये हैं खड़े है भेड़ की खाल ओढ़े।
ऐसा नहीं है कि हम तुम्हें ही बाजार सरे आम बेचेंगे
हम खुद भी मक्खन रोटी के लिए सरे बाजार बिके हैं।
No comments:
Post a Comment