Friday, 6 February 2015

सोचता हूँ सच न कहना चाहिये , न लिखना चाहिये .सच को कोई जानना नहीं चाहता .
कह भी दो , बता भी दो तो सच को सच मानने के लिये कोई तैयार नहीं होगा ,इस लिये सच कहने का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता .
सच कई बार वीभत्स होता है .
समय की परत में दबा सत्य पहचान पाना कठिन है .
समय के साथ साथ सत्य के प्रमाण धूमिल होते जाते हैं .
सत्य जब अनुमान पर आधरित हो तो वह शायद सत्य नहीं रह जाता .
सत्य को जानने या पहचानने के लिये जब अनुमान लगाया जाने लगे तब समझ जाना चाहिये की सत्य तक पहुंचने या पहुँचाने की प्रक्रिया  जटिल हो चली है .
सत्य तक सहज भाव में तो पहुंचा जा सकता है पर जब सच तक पहुंचने का मार्ग जटिल बुद्धि या तर्क से होकर गुजरने लगे तो सत्य  तक  पहुंचना दुर्गम तो अवश्य ही हो जाता है .

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