Thursday, 5 September 2013

साहित्य समाज का आईना होता है, समाज उसमें अपना चेहरा देख सकता है , चेहरे के दाग देख सकता है - बस इतना भर ही।
आईनों पर चला नहीं जा सकता।चलने के लिये राहें चाहिये।राहें देखने दिखाने से नहीं बनती। रस, अनुप्रास, अलंकार, छन्द, शब्द, ये कविता बना सकते हें, कहानी बना सकते हैं- राहें नहीं। रास्ते केवल सौन्दर्यबोध से नहीं बनते। रास्तों में होते हैं, गड्ढे, नदी, नाले, पहाड़, पत्थर, काँटें। रास्तेबनाये जाते हैं पसीने से, कड़ी धूप में नंगें पाँव चल कर, रास्ते बगीचे में गुलाब के फूलों को निहारते नही बन जाते। आँखें बंध कर सोचने से, कल्पना लोक में विचरण करने से रास्ते नहीं बनते। शमाज को चलना भी है। समाज को रास्ता चाहिये। नये को आना ही है। नये को आने का रिस्ता चाहिये। मेघदूत, कुमारसंभव, बस क्या यही हे जीवन। इसी को हम आने वालों को दिखायेंगें की हमारे पास तो बस यही है। साहित्य समाज का दर्पण है। पर समज को केवल दर्पण ही नहीं चाहिये।
समाज को चाहिये  रात -रात भर जगता गरम खून  और प्रयोगशाला में बैठा  य़ौवन, युवक की अँगुली थामे अनुभव, एक हथेली पूरी की पूरी भविष्य के कंधे पर, इतमिनान दिलाता भूत , लंबी दौड़ के लिये, उँची कूद के लिये ललकारता अगला दिन, जुड़ै हुए कंधे, ज्ञान-ग्रंथ लिखते ,पढ़ते, बाँचते विद्वान, अपना अनुभव बाँटता अनुभव- तब जा कर समाज को मिलती है एक राह- राह भविष्य की राहत है, राह समाज की समवेत चाहत है, राहे ही भूत का भविष्य के लिये उपहार है- राहें सामाजिक उपकार है, राहें सामाजिक उपचार है, भविष्य को दिशा देना  वर्तमान का कर्तव्य है- राहे वर्तमान का कर्तव्यबोध है- राहें महज विलासिता नहीं, औपचारिकता भी नहीं।


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