Thursday, 5 September 2013

मूक रह कर भी बोला जा सकता है। वाचाल जबान अधिक चला सकते हैं पर अमुमन कम बोल पाते है। बोलना केवल जिह्वा-विलास नहीं हुआ करता। बोलने के लिये बोलना पड़ता है-केवल जबान चलाना बोलना नहीं होता।बोलने के लिये जानना, गुनना और समझना होता है। बोलने के पहले समझाने के लिये समझना होता है।सामने देखना और समझ कर ही बोला जा सकता है। बोलने के लिये पहले बात खोजनी पड़ती है, बात को सजाना पड़ता है तब परोसी जाती है बात सलीके से बोल कर। सलीके से बोलना ही बोलना, मौके पर बोलना ही बोलना। बात बात का वजन होता है। बोलने के पहले तौलना भी पड़ता है, बात को, खुद को, सामने वाले को। जो बात संभले वही बोली जाती है। न संभाल सको ,वह  बोलना ही नहीं। वही बोलो जो समझो, जो समझो वही बोलो। समझ में और बोलने में भेद हुआ तो बोला व्यर्थ।
बोलो वही जो सुना जा सके। जहाँ सुना जाता है वहीं बोलना उचित है। जो सुने अथवा जिसे सुनना है उसी से बोलो, मुँह वहीं खोलो जहाँ सुनवाई हो, जिसे सुनने का अधिकार हो।
बात बिगड़ती है, संभालना पड़ता है। शब्द बातों के वेश हैं। शब्द सुरुचिपूर्ण होंगें तो बात भी भली लगेगी। शब्दों के प्रयोग में मितब्ययी होना चाहिये। अधिक शब्द भ्रम पैदा करते देखे गये हैं।

फिसली जुबान  तो शब्द निकल जायेंगें, निकले शब्द वापस नहीं आयेंगें। शब्द विन्यस कला है। हर शब्द कि लिये विशेष पात्र होते है। एक ही शब्द अलग अलग व्यक्ति , स्थान, समय तथा परिस्थिति मैं भिन्न रूप धारण कर लेते हैं। सलीका बदलते ही शब्दार्थ बदल जाते हैं।
सावधान, बोलने जा रहे हो, सोचो, समझो, देखो, परखो तब बोलो- बोलने में सब मत खोलो। शब्द ही सम्पत्ति है।
 

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